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आधुनिक राजस्थान के निर्माता विजयसिंह पथिक
रचनाकारः वासुदेव मंगल

पथिकजी धूल में उगे, पले, बडे हुए जिन्होंने अपनी सुरभि से समस्त भारतीय जीवन को मुग्ध किया और अन्त में अनजाने इसी मिट्टी में मिल गये। पथिक जी का सारा जीवन राष्ट्र् पर उत्सर्ग था। व्यक्तिगत आशा और आकाँक्षाओं से वे पूर्णरूप से दूर थे। उनका मन, प्राण, आत्मा, परमात्मा सब कुछ स्वतन्त्र यज्ञ के हवाले था। उनके जीवन का पल पल, क्षण क्षण राष्ट्र् हित चिन्तन में लगता था। उनका जीवन लगन और निष्ठा की दृष्टि से अभूतपूर्व था। उनकी लगन अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फैकने में थी। सो उसकी पूर्ति के लिये उन्होंने सब कुछ किया। बिजौल्या और बेगू सत्याग्रह ने उनके अन्दर निहित महान् संगठन के गुणों को सम्पूर्ण रूप से अभिव्यक्त कर दिया था।


पथिकजी के संगठन सम्बन्धी अद्भूत क्षमता का परिचय इस बात से होता है कि बिजौल्या और बेगू में ठीकानेदार, मेवाड़ राज्य ओर ब्रिटिश सरकार तीनों की सत्ता खतम हो गई थी। अगर वहाॅं की जनता पर किसी का अकुँश था तो वह था पथिकजी का। उनके नाम पर ही सारी प्रजा सर्वस्य बलिदान के लिये तैय्यार हो जाती थी। उनकी लोकप्रियता का सहज प्रमाण यह है कि मेवाड़ राज्य और ब्रिटिश सरकार के सयुॅंक्त प्रयास के उपरान्त भी पथिक जी पकडे़ नहीं गये।

 
बेगू सम्याग्रह के समय पथिकजी पकडे़ गये। सारे देश में पथिकजी की गिरफतारी से क्रोध और क्षोभ की लहर दौड गई। राष्ट््रीय समाचार पत्रों ने मेवाड़ सरकार की तीव्र भत्र्सना की। पथिकजी ने अपने पर लगाये गये आरोपों का उत्तर स्वॅंय ने दिया यानी अपने अभियोग की पैरवी खुद ने की। न्यायाधीश महोदय ने पथिकजी को छोडे़ पर अदालत तक आने की व्यवस्था करवाई थी। अन्त में न्यायालय ने पथिकजी को तीन साल की सुनवाई के बाद दोषमुक्त घोषित कर दिया। मेवाड़ सरकार ने पथिकजी पर मेवाड़ प्रवेश पर सर्वदा के लिये प्रतिबन्ध लगा दिया पथकजी के बारे में महात्मा गाॅंधी ने दीनबन्धु एन्ड्र्ज को बतलाया कि पथिकजी सचमुच काम करने वाले है। और सब बातनी है।
परिस्थितियों ने पथिकजी को बौद्धिक दृष्टि से अत्याधिक विकसित कर दिया था। उन्होंने विधिवत शिक्षा प्राप्त नहीं की थी फिर भी अनुभवात्मक ज्ञान से वे परिमार्जित थे। अपने कारागृह प्रवास के दौरान पथिकजी ने महत्वपूर्णकाव्य रचनाऐं लिखी थी जिनमें प्रहलाद विजय पहीला खण्ड काव्य है और दूसरा काव्य है पथिक प्रमोद और पथिक विनोद।
पथिकजी केवल महान् क्रान्तिकारी ही नहीं थे वरन् एक महान् समाज सुधारक भी थे। उन्होंने जानकीदेवी नामक एक बाल विधवा से शादी करके समाज की रूढि़यों और अन्ध विश्वासों को तोड़ दिया।
पथिक जी कलम और तलवार दोनों के धनी थे लेकिन उन्होंने अपने हित साधन के लिये कभी भी इन दोनों अस्त्रों का उपयोग नहीं किया। देश के स्वतन्त्र हो जाने के बाद पथिकजी जैसे स्वाभिमानी व्यक्ति अपने अस्तित्व को कायम नहीं रख सके। लोगों की स्वार्थपरता और नीचता से उनका हृदय टूट गया। मन विहृल हो गया। उन्होनें गाँधीजी से भेंट की और उनके आग्रह से अजमेर में राजस्थान किसान संध की स्थापना करने आये। लेकिन दुर्भाग्य से पथिकजी बिमार पड़ गये। अजमेर के पाल बिचला मोहल्ले में दिन के भूखे प्यासे पथिकजी का देहान्त 27 मई सन् 1954 को हो गया।
पथिकजी भारत की राजनीति घन्ल छदम्, जोड़-तोड़, आपा छापी से घृणा करते थे। लोगों की स्वार्थपरता विशेषकर अजमेर राज्य के राजनीतिक कार्यकर्ताओं की कृतघ्नता ने उनके हृदय पर तीखा प्रहार किया। देश का महान् लाडला, भूख, गरीबी, उपेक्षा और अपमान से सॅंघर्घ करता हुआ चिरनिद्रा में भूखा सो गया। भणोपरान्त शायद जनता भी उमड़ पड़ी, राजनेता भी आँसू बहाने आये, लेकिन वह महान् आत्मा इस सब बातों की पहॅंूच से दूर हो चुकी थी। देश अपने को कभी माफ नहीं कर पायेगा इनके प्रति की गई कृतघ्नता के लिये। वे तो शेर थे। शेर ही बनकर रहे और शेर के रूप में ही दम तोड़ दिया। 

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