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ब्यावर का प्रसिद्ध तिलपपड़ी-घरेलू उद्योग 
  
रचनाकारः वासुदेव मंगल


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विश्व में ब्यावर की पहिचान तीन कारणों से हैंः पहिला ब्यावर का उन उद्योग जिसे दो भागों में विभक्त कर सरकार ने केकड़ी और बीकानेर स्थानान्तरित कर दिया। दूसरा ब्यावर का बादशाह मेला जिसकी रंगत भी दिनों दिन फिकी पड़ती जा रही है और तीसरा ब्यावर का घरेलू तिलपपड़ी उद्योग। घरेलू उद्योग में तम्बाकू व बीड़ी उद्योग भी है जिसने भारत में ब्यावर के नाम को गौरवान्वित किया हैं।

  
ब्यावर एक उॅंचे पठार पर स्थित होने के कारण साल के छ महिने अक्टूबर से मार्च तक यहाॅं का जलवायु आर्द्रता लिये होता है। क्योंकि यह सर्दी का मौसम होता है जब सूरज दक्षिणी गोलार्द में सीधा चमकता है। यह मौसम तिलपपड़ी उद्योग के लिए अनुकूल होता है।
  
20वीं सदी के पूर्वाद्ध से ही ब्यावर में तिलपपड़ी, तम्बाकू और बीड़ी का घरेलू उद्योग अपनी चरम सीमा पर है। आवश्यकता है इन घरेलू उद्योगों को सरकार के संरक्षण की ताकि रोजगार सुलभ कराने के साथ साथ यह उद्योग विदेशी मुद्रा अर्जित करने का भी एक महत्वपूर्ण साधन हो सकता है।
  
संसार में चीन के बाद भारत जैसे विशाल 104 करोड़ वाली जनसंख्या के देश में इस प्रकार के घरेलू उद्योग, लोगों को रोजगार सुलभ कराने का एक महत्वर्पूण साधन हो सकता है जिससे जनता को सरकार द्वारा रोजगार सुलभ कराने की परेशानी भी कुछ हद तक दूर हो सकती है बशर्ते सरकार स्वदेशी की इस तकनीक योजना को ईमानदारी से संरक्षण के साथ लागू करें।
  
ब्यावर की तिलपपड़ी को विशिष्टता प्रदान करने में प्रकृति प्रदत्त कारण है। इसके साथ साथ, हाथ की कारीगरी का कमाल भी साथ में है। दो तार की चासनी, खाने में निम्बू के जायके के साथ साथ कम मीठी स्वादिष्ट व करारी तिलपपड़ी उपभोक्ता को बरबस, इस व्यजंन की और आकर्षित करने के मुख्य घटक गुण है। इस प्रकार ईलायची केसर की खुशबू के साथ साथ बादाम, पिस्ते का स्वाद इस तिलपपड़ी की विशेषता है। स्वाद और गुणवत्ता की दृष्टि से यह व्यजंन अपने आप में, दुनियाॅं में, एक अनोखा व्यजंन है जो सस्ता, सुलभ होने के साथ साथ मुरीद की मुराद पूरी करने के दुर्लभ काम को पूर्ण करने में भी खरा उतरा है। अतएव् आजकल यह आईटम तोहफे के रूप में भी बहुत अधिक ईस्तेमाल किया जाने लगा है।
  
यह व्यजंन भारत का ही नहीं अपित् दुनियाॅं के अन्य देशों के लोगों का भी पसन्दीदा व्यजंन है। चीन, जापान, आस्ट्रेलिया, अमेरीका, यूरोप, एशिया सभी जगह तिलपपड़ी बहुत ही चाव के साथ चटकारे ले लेकर खाई जाती है। ब्यावर का यह प्रसिद्ध तिलपपड़ी व्यजंन देश में ही नहीं अपित् विदेशों में भी धूम मचा रहा है।

  
तिलपपड़ी बनाने की भी अपनी एक विशेष कला है। पहीले तिलों को पंखे की हवा में साफ किया जाता है। फिर इन्हें पानी में भिगोया जाता है ताकि कचरा व रेत पानी में ही रह जाये। इसके पश्चात् गिलेे तिलों की, बड़ी कढ़ाही में, लकड़ी के मुुगदर से कुटाई होती है। फिर कढ़ाई में तिलों की सिकाई होती है। सिके हुऐ तिलों को फिर पंखे की हवा में साफ करते है ताकि छिलका भूसी तिल से अलग हो जावे। पृथक से दो तार की शक्कर की भट्टी पर कसले में चासनी निम्बू निचोड़कर इस प्रकार बनाई जाती है कि काॅंच की माफिक चासनी सारे मेल से साफ होकर चमकीली निम्बू के स्वाद की बन जाती हैं। सिके हुऐ साफ किये हुऐ तिलों को एक कढ़ाई में अलग से रखा जाता हैं। इस प्रकार तैयार चासनी को सिखे हुऐ तिलों में डाला जाता है और तिल के लोए बनाये जाते हैं। लोए भी खाने में स्वादिष्ट लगते है। तत्पश्चात् लोए को लोहे के चैडे़ थाल में बेलन से, दोनों बाहों का बेलन के दोनों हत्थों पर पूरा जोर लगाकर बेला जाता है। गरम गरम चासनी के लोए को जितनी फुर्ती से बेला जाये उतनी ही तिलपपड़ी पतली बिलती चली जाती है। अतः तिलपपड़ी का जितना फैलाव होगा उतनी ही पतली होगी। अब तिलपपड़ी तैयार है। यह तैयार की हुई तिलपपड़ी ऐसी लगती है मानो चासनी में एक एक तिल जोड़कर पिरोये गये हो।
 
वैसे तो आजकल व्यवसाय की दृष्टि से इस उद्योग को बारह महिनों ही व्यवसाय बना लिया गया है। परन्तु छ महीने सर्दी के मौसम में अक्टूबर से मार्च तक अनुकूल मौसम में ही यह उद्योग सफल है। अतः सीजनल घरेलू उद्योग है। सर्दी के मौसम में ही तिलपपड़ी खाने में अच्छी लगती हैं। गरमी में चासनी चिप चिप करने लग जाती है और स्वाद भी नहीं रहता है।
  
सर्दी आते ही बहुत सारे कारीगर इस काम में मुस्तैदी से मशगूल हो जाते है। तिलपपड़ी दो प्रकार की होती हैं बादाम, पिस्ता, इलायची, केसर वाली तिलपपड़ी और दूसरी प्रकार की सादा तिलपपड़ी। इलायची, पिस्ते वाली तिलपपड़ी 90/- से 100/- किलो और सादी तिलपपड़ी 60/- से 70/- प्रति किलो के भाव से बेची जाती हैं।

 

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