गुरू पूर्णिमा पर विशेष आलेख
पण्डित रामप्रताप जी शास्त्री

(1887-1952)

लेखक - वासुदेव मंगल

 

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पण्डित रामप्रतापजी शास्त्री प्रकाण्ड विद्ववान थे। वे अत्यन्त मेधावी तथा असाधरण प्रतिभा के धनी थे। उनमें लोकोत्तर कारयित्री तथा भावयित्री प्रतिभा तथा अद्रुत मेधा शक्ति का विलक्षण संयोग था। वे सोलह वर्ष की अवस्था में ही गवर्नमेण्ट कालेज तथा ओरिएण्टल कालेज, लाहोर में संस्कृत के अध्यापक नियुक्त हो गए थे। कालान्तर में वे नागपुर विश्वविद्यालय में संस्कृत के प्रोफेसर तथा संस्कृत, पाली, प्राकृत, आदि विभागों के अध्यक्ष बने। उन्होंने 43 वर्ष की आयु में ही नागपुर विश्वविद्यालय से विश्रान्ति ग्रहण कर ली थी और अपना शेष जीवन आध्यत्मिक चिन्तन में ब्यावर (राजस्थान) में व्यतीत किया था। वे केवल शास्त्रों के ही प्रकाण्ड पण्डित नहीं थे, बल्कि एक महान् राजयोगी तथा परम भक्त थे। वे एक सिद्ध योगी थे और उनमें अनेक आध्यात्मिक आलौकिक सिद्धीयॉं विलास करती थी। वे किसी की भी आखों की तरफ देखकर उसकी जन्मतिथि तथा मृत्यु तिथि बता देते थे। इसका अनुभव उन हजारों मित्रों ने तथा हजारों-हजारों शिष्यों ने किया था जो उनके सम्पर्क में आये थे।

रामप्रतापजी वास्तव में सद्गुरू थे। उनके हजारों हजारों शिष्यों में उनका एक भी शिष्य दुखी नहीं था। वे ज्ञान के अगाध सागर थे । वे धाराप्रवाह संस्कृत बोलते थे। वेदांत तथा श्रीमद्भागवत् के विलक्षण के व्याख्याकार थे। उनके भाषनों से जनता मन्त्रमुग्ध हो जाती थी। संस्कृत तथा बृज भाषा में अनुप्रासो की लड़ी लग जाती थी। भारती विद्या के विश्व विख्यात विद्वान, अनेकानेक सुप्रसिद्व पण्डित, आचार्य पुरूष, सन्यासी तथा भक्तगण सम्पूर्ण भारतवर्ष से विचार विमर्श करने ब्यावर में उनके पास आया करते थे। वे सबको वेदान्तशास्त्र तथा भक्ति का रहस्य समझाया करते थे। स्वामी करपात्री जी महाराज, जगद्गुरू शंकराचार्य श्रीकृष्णबोधाश्रम जी महाराज, स्वामी असंगानन्द जी सरस्वती, भागवताचार्य जी आदि सुप्रसिद्व सन्यासी एक एक महिने तक ब्यावर उनके साथ निवास करते थे।

रामप्रताप जी ने नाम तथा कीर्ति के लिए लेशमात्र भी परवाहा नहीं की। वे प्रेम तथा आनन्द की मूर्ति थे। उनका व्यवहार सबके प्रति समान था। जो व्यक्ति एक बार भी कुछ समय के लिए भी उनके सम्पर्क में आ जाता था वह हमेषा यही कहता था कि गुरूजी ने उसी के साथ सबसे अधिक प्रेम किया था। उनके जीवन, शिक्षा तथा उपदेश को विस्तार से जानने के लिए संस्कृत महाकाव्य ‘श्रीरामप्रतापचरितम्’ पढ़ना चाहिए। इनकी जानकरी ब्यावरहिस्ट्री डॉट कॉम पर भी है।

श्री रामप्रताप चरित्रम् से यह भाव झलकता है कि वो जिस मुद्रा में होते थे उसी भाव को भक्तजनो को दर्शाते थे। जैसे शास्त्री जी कभी भागवद्जी की कथा कर रहें हैं तो कभी गिरीराजजी की परिक्रमा कर रहे है। कभी यह भाव दर्शित होता हैं कि गुरू पूर्णिमा के दिन हजारों व्यक्ति हाथों में पूजा कि सामग्री तथा मालाऐं लिए हुए उनकी पूजा कर रहें हैं तो कभी यह भाव दर्शित होता हैं कि वे मधुर मुस्कान के साथ भक्तजनों को निहार रहें है।

 

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