vasudeomangal@gmail.com  

जॅंगे आजादी के अमर-नायक
कर्मयोगी
बाबा नृसिंहदास 
1890 - 1957 

लेखक - वासुदेव मंगल


  
भारत में स्वतन्त्रता जन आन्दोलन के गाॅंधीवादी युग के भामाषाह सेठ नृसिंहदास अगरवाल का जन्म नागौर में सेठ हरिरामजी के घर 31 जुलाई सन् 1890 केा हुआ। तेरह वर्श की उम्र में ही आप खाने कमाने के लिये मद्रास चले गए। उन्नीस वर्श की उम्र में आपके पिता ने षान्ति देवी के साथ आपका विवाह कर दिया। अपनी तीक्ष्ण बुद्धि चातुर्य से आपने मद्रास में कारोबार में अपार सम्पत्ति अर्जित की। मद्रास में व्यापार के साथ साथ आपके मन में सन् 1921-22 में देष सेवा करने की ललक जागी। परिणामतः आपने वर्धा में आकर महात्मा गाॅंधी के चरणों में अपनी समस्त अकूत सम्पत्ति देष सेवा हेतु न्यौछावर कर दी और फक्कड़ बाबा हो गए। तब से आप बाबा कहलाने लगे। गाॅंधीजी और सेठ जमनालाल बजाज के कहने पर राजपूताना मध्यभारत में गाॅंधीवाद की नींव 1 अगस्त सन् 1927 में अजमेर से छः मील दूर अजमेर रतलाम मार्ग के हटूंडी गांव में गाॅंधी आश्रम के नाम से बाबा नृसिंहदासजी ने रक्खी। यहाँ पर हरिभाऊ उपाध्याय के साथ मिलकर बाबा नृसिंहदासजी ने भारतमाता को स्वतन्त्र कराने हेतु सारी रचनात्मक प्रवृतियाँ काँगे्रस के तत्वाधान में आरम्भ की। बिजौलिया का प्रसिद्ध किसान सत्याग्रह एवं विभिन्न प्रजा मण्डलों के आन्दोलन का केन्द्र हटूंडी ही रहा, जिसमें गाँधी सेवा संघ, ब्यावर राजस्थान खादी मण्डल, अजमेर में सन् 1926 में सस्ता साहित्य मण्डल, 2 फरवरी 1930 को यूथ लीग की स्थापना की। 
गाॅंधी इरविन समझौता भंग होेने के कारण बाबाजी को 3 दिसम्बर सन् 1932 को अजमेर में मास्टर लक्ष्मीनारायण के साथ गिरफ्तार कर जेल में उाल दिया गया। यहाॅं पर बाबाजी के विचारों में बहुत बड़ा परिवर्तन आया। उन्होंने सोचा कि अहिसंक आन्दोलनों से आम जनता में जागृति तो लाई जा सकती है परन्तु सत्ताधारियों का मनोबल तोड़ने के लिये सषस्त्र, क्रान्ति की आवष्यकता है। इसी विचार ने जेल से छुड़ने के बाद बाबाजी को ब्यावर षहर में क्रान्तिकारी भूमि की और आकर्शित किया जिसे उन्होंने अपनी कर्मभूमि बना लिया। क्योंकि ब्यावर क्रान्तिकारियों की गतिविधियों का केन्द्र था। देष के प्रमुख क्रान्तिकारियों का सतत् आवागमन व सम्पर्क ब्यावर के ही प्रमुख केन्द्र से था जहाँ पर क्रान्तिकारियों के मुख्य सूत्रधार स्वामी कुमारानन्द रहते थे। बॅंगाल के क्रान्तिकारी इनके सीधे सम्पर्क में थे। ब्यावर में क्रान्तिकारियों को समय समय पर भूमिगत होने का प्रश्रय मिलता था और अस्त्र षस्त्रों की क्रान्तिकारियों को आपूर्ति भी यहीं से ही होती थी। क्रान्तिकारी प्रवृतियों के लिये ब्यावर की भौगोलिक एवं राजनीतिक स्थिति अनुकूल होने के कारण यह जगह महफूज मानी जाती थी। ष्यामगढ़ के किले में बनकर अस्त्र-षस्त्र उत्तर प्रदेष, बंगाल, पंजाब एवं बम्बई प्रान्त के क्रान्तिकारीयों को भेजे जाते थे। इस सिलसिले में क्रान्तिकारियों का ब्यावर में आये दिन आना जाना लगा रहता था। भगतसिंह, चन्द्रषेखर आजाद, सुभाशचन्द्र बोस, रास बिहारी बोस, अरविन्द घोश, स्वामी दयानन्द जैसे तत्कालिन षिखर के क्रान्तिकारी नेता ब्यावर की क्रान्तिकारी गतिविधियों से सीधे जुडे हुए थे तथा ब्यावर आते जाते रहते थे। इनमें कई क्रान्तिकारी बाबाजी के सम्पर्क में भी आये जिन्हें छिपाने, षस्त्रों एवं धन की व्यवस्था करने का काम बाबाजी करते थे। नेताजी सुभाशचन्द्र बोस बाबा नृसिंहदासजी को बड़े भाई तुल्य समझते थे। अतः सन् 1941 में बाबाजी ने ही भारत के बाहर जाकर नये सिरे से सेना तैयार कर अगे्रंजों से लड़ने की सलाह सुभाश को दी और इसीलिय जियाऊद्दीन के रूप में भारत से प्रस्थान करने के लिये सुभाश को कलकत्ता में विदाई देने वालों में बाबाजी प्रमुख थे। बाबाजी ने सदैव देष की निस्वार्थ भाव से सेवा की। देषहित की संस्थाओं में स्वार्थ की राजनीति के प्रवेष से बाबाजी काफी दुखी रहने लगे। क्योंकि ऐसा होने से कार्यकत्ताओं के चरित्र, स्तर एवं राश्ट्रीय चिन्तन में गिरावट षुरू हो गई। इसी का परिणाम यह हुआ कि हटूंडी के गाॅंधी आश्रम को हरिभाऊ उपाध्याय ने बड़ी सफाई से अपने नाम कर लिया और बाबाजी केा हाॅंसिये पर ला खड़ा किया। बाबाजी ने जब अपने ही द्वारा स्थापित पुश्पित और पल्लवित संस्थाओं के सॅंचालकों की संकीर्ण मनोवृति और निहित स्वार्थों के लिये राश्ट्रहित की इन संस्थाओं का दुरूपयोग होते देखा तो उनकी आत्मा कराह उठी जिसकी अभिव्यक्ति उन्होंने अपनी पुस्तक राजस्थान की पुकार में की हैं। जिसमें उन्होंने इन चन्द स्वार्थी तत्वों को धनपतियों का एजेन्ट बताया है जो धन के हाथों अपने को बेचकर वे अपने मस्तिश्क का उपयोग बडे़-बडे़ कल्पित सिद्धान्तों और समाज और देष की उन्नति में बाधक निश्प्राण योजनाओं की रचना करने और उनको लागू कर समाज और देष का षोशण करने में करते है। जो सीधे सीधे समाज और देष के लिये काम करने वाले व्यक्तियों में पनप रहे नैतिक एवं मनोवृतिक अवमूल्यन को रेखांकित करती है।बाबाजी का काम करने का तरीका बड़ा विचित्र था। वे पुलिस एवं सरकारी जासूसों को अपना बना लेते थे। वे इन लोगों को आजादी की लड़ाई लड़ने में इनकी मजबूरी और कत्र्तव्य परायणता मानते थे। 
देष की आजादी के बाद बाबाजी की सोच, कार्य क्षेत्र एवं लड़ाई का मोर्चा बदल गया था। एक तरफ राजस्थान की जनता को सामन्तषाही से मुक्ति दिलाकर वास्तविक गणराज्य स्थापित करने की चुनौती थी तो दूसरी ओर सत्ता पाकर नवोढ़ सत्ताधारियों को सत्तामद से इतराने - बौराने से रोकने की चिन्ता थी। अकाल के समय राजस्थान को मध्य भारत से अन्न-वस्त्र की सहायता मिलती थी। अतएव बाबाजी के अनुसार राजस्थान का क्षेत्र इन्दौर से रेवाड़ी व भरतपुर से आबू होना चाहिए था जिसका मुख्यालय अजमेर होना चाहिये था। आज राज्य बाबाजी की बताई हुई समस्याओं से रूबरू हो रहा है। आये साल पड़ने वाले अकाल से अकेला राजस्थान लड़ने में अक्षम है जिसे केन्द्र की मेहरबानियों पर निर्भर रहना पड़ता हैं और कमोवेष राजनीतिक ब्लैकमेलिंग का षिकार होना पड़ता हैं। यहीं हाल नदी जल बंटवारे एवं अन्य संसाधनों को लेकर है। इसके अतिरिक्त राजस्थान को व्यवसायिक गतिविधियों का मुख्य केन्द्र बनाने हेतु कांडला बन्दरगाह तक की भूमि राजस्थान में मिलाई जानी चाहिये थी ताकि अकाल और सूखे के कारण राज्य की जनता को काम मिल सके और उन्हें बाहर अन्य प्रान्त में नहीं जाना पडे़। इस आषय का प्रस्ताव बाबाजी ने विजयसिंह पथिक के साथ मिलकर पण्डित हीरालाल षास्त्री मन्त्रीमण्डल से पारित करवाया था। वे साफ ओर खरी बात कहने से कभी पीछे नहीं हटते थे। बुराई और भ्रश्टाचार के खिलाफ लिखने के वे सख्त हामी थे। उनके समाचारों में तीखापन होता था और घटनाओं का बेबाक प्रस्तुतीकरण। बाबाजी क्रान्ति के अग्रदूत थे। उनका जीवन द्वंद्वात्मक स्थिति का था जॅंहा पर केवल संघर्श ओर सृजन था। वे एक सच्चे राश्ट्रभक्त एवं क्रान्तिकारी थे।स्वतन्त्रता के बाद जहां अन्य नेता राजयोग से रातों-रात मालामाल हो गये। जीवन के सभी सुख बटोरने में जुट गए वंहा बाबाजी अन्त तक बाबाजी ही बने रहे। अन्याय, अत्याचार को उन्होंने कभी बर्दाष्त नहीं किया और सिद्वान्तों से कभी पीछे नहीं हटे। हर कठिनाई में सहज बना रहना और सिद्धान्तों से समझौता नहीं करना उनके जीवन आदर्ष थे। आजादी की लड़ाई में श्री विजयसिंह पथिक, पं. अर्जुनलाल सेठी, स्वामी कुमारानन्द ओर बाबा नृसिंहदास की चैकड़ी एक ही धारा में बही और चारों ही लगभग समान नियति भोगते हुए दुनियां से विदा हुए। बाबाजी जीवन भर तक चलते जोगी के रूप में रहे। अजमेर के श्री कृश्णगोपाल गर्ग बाबाजी के प्रिय षिश्य थे। श्री कृश्ण गोपाल गर्ग और उनके परिवार के सदस्यों ने अपने परिवार के सदस्य की ही भांति उनकी खूब सेवा की। अन्त में 22 जुलाई सन् 1957 को वे अपनी अन्तिम मुस्कराहट बिखेरकर सदा के लिये दुनियां को अलविदा कह गये। 

 

Copyright 2002 beawarhistory.com All Rights Reserved