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अनूठा रण बाँकुरा
ठाकुर जोरावर सिंह
रचनाकारः वासुदेव मंगल
अभी तक आम जनता ज्यादातर यही समझती रही है कि दिल्ली में सन् 1912 में लार्ड हार्डिग्ज पर बम फैंकने वाले रास बिहारी बोस थे, परन्तु वास्वत में ये ठाकुर जोरावर सिंह थे।
आपका बाल्यकाल शाहपुरा, उदयपुर और जोधपुर में राजसी ठाटबाट के साथ अपने पिताश्री कृष्णजी बारहट के साथ बीता, जहाँ पर जीवन के प्रारम्भिक दिनों में अनुशासन सुव्यवस्था, निर्भिकता, सत्य कथन और वीरत्व के सॅंस्कार इस भावी शहीद के मानस पटल पर दृढ़तापूर्वक अंकित हो गये।
जब दिल्ली के चाँदनी चैक में बाइसराय महोदय का जलूस बड़ी शान शौकत से निकल रहा था। गोराशाही के गुरगों का जबरदस्त पहरा लगा हुआ था। उस वक्त इस अनूठे रण बाँरकुरे वीर ने जिस कमाल के साथ बुरके में से लाट साहिब पर बम का निशाना मारा वह संसार के इतिहास में सर्वदा के लिये एक स्मरणीय घटना रहेगी। बम फेंककर जिस हिम्मत व बहादुरी के साथ ठाकुर जोरावर सिंह ब्रिटिश शाही की आॅंखों में धूल झोंककर ऐसे लापता हए कि अपने पूरे साधनों का उपयोग करके भी ब्रिटिश सरकार आजन्म उस वीर का पता न लगा सकी। ठाकुर साहिब दिल्ली से फरार होकर अज्ञातवास में चले गये व अज्ञातवास काल में अपने आपको भारत माँ को स्वतन्त्र कराने के प्रयत्नों में झोंक कर अपने जीवन का उत्सर्ग कर भारतीय क्रान्ति के इतिहास में उन्होंने एक अनमोल पृष्ट जोड़ दिया। उस श्रेष्ठ क्रान्तिकारी ने अपनी वेश भूषा और बोल चाल को बदलकर गुप्त वेष धारण कर लिया और युग पर्यन्त अज्ञातवास की कठिनतम यन्त्रणाओं के सन्मुख क्षणभर के लिये भी विचलित नहीं हुए।
फरारी के कई वर्षें बाद वह जोरावर सिंह अपरिचित बेश में मेहमान के रूप में कभी राजस्थान केसरी के परिवार में और कभी खरकड़ा गाॅंव में गृहलक्ष्मी अनोपकॅंवर से मिलने आते है। सब लोग उन्हें महाराज कहते है।
जब बम डालने निकले तो कुछ साथी पहिले साथ साथ जब यमुना नदी में नाव मे से पार हो रहे थे तो उनसे पूछा गया कि तुम्हारे पास इतना सामान कैसे है? कहा कि माहेरा लेकर जा रहे है और इधर इन्हें यह सन्देह हुआ कि कहीं पुलिस शक न कर ले। वहीं से उन्होंने उनके अन्य साथियों को लौटा दिया और प्रताप ने जोगिया कपडे़ पहने। हाथ इनका सधा हुआ था कि उपर ओढ़ी हुई चद्दर का पल्ला उपर उठाकर तेजी के साथ हाथ से बम निकाल देते थे। जब सवारी निकलने लगी तब बम फेंका और भीड़ में उसी क्षण गायब हो गये। आगे जाकर नदी में बाढ़ मिली। प्रताप जन्जीर पकड़कर सात घण्टे तक नदी में लटकता रहा। फिर कुछ बहा, कुछ तैरा। किनारे पर दो पुलिस वालों को सन्देह हुआ तो जोरावर सिंह ने उनकेा तलवार के घाट उतारकर प्रताप को कन्धे पर डाल ले गए।
बिहार प्रान्त के प्रसिद्ध आरा षड़यन्त्र में भी ठाकुर जोरावर सिंह को प्राणदण्ड की सजा दी गई थी। परन्तु मुल्जिम तो पहीले से ही फरार था। आप लगभग 26 वर्ष पर्यन्त अज्ञातवास मं रहे। आपके इस कार्य के परिणाम स्वरूप आपकी समस्त जायदाद जब्त हो गई। आपके परिवार वालों को महान कष्टों का सामना करना पड़ा और सबसे अधिक साहस और कष्ट सहिष्णुत का परिचय दिया आपकी धर्मपत्नि अनोपकॅंुवर बाई ने जो सदा अपने ओजस्वी तथा उत्साहवदर्द्धक वचनों द्वारा अपने पतिदेव केा भारतमाता की बेडि़याॅं काटने के हेतु अग्रसर करती रही।
सर्वप्रथम प्रान्तों में कांगे्रस मिनिस्ट्र्ी बनने पर यह प्रयन्त किया गया था कि उनके खिलाफ आरा षड़यन्त्र वाला वारण्ट रद्द कर दिया जाय किन्तु यह देश का दुर्भाग्य ही था कि हमारे देश के इस अमर शहीद को हम कानूनी प्रतिबन्ध से मुक्त कराकर सावर्जनिक जीवन में नहीं ला सके। फिर भी इस रण बाॅंकुरें जोरावर सिंह ने तो अपने आपको स्वतन्त्र रखने की प्रतिज्ञा को अन्त तक निभाया। सन् 1939 में निमोनिया से ग्रस्त होकर इस अनोखेवीर ने इस नश्वर देह को त्याग दिया।
राजस्थान का यह सौभाग्य है कि महान् बारहट परिवार में उसे एक साथ तीन नरत्न प्राप्त हुए और तीनों ने देश के लिये महानतम् बलिदान का आदर्श उपस्थित किया।
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