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ज्ञान के प्रकाश पुंज
स्वामी ब्रह्मानन्दजी महाराज  


रचनाकारः वासुदेव मंगल 


  

   

ब्यावर की पावन घरती में वह चुम्बकीय आकर्षण है जो महान् तपस्वी को भी अपनी ओर आकर्षित कर लेती है। इस पावन धरा पर बीसवीं सदी के आरम्भ में ज्ञान के प्रकाश पुंज स्वामीजी ने भारतवर्ष की चहुॅं दिशा में भ्रमण करते हुए सिन्ध से गुजरात के मार्ग से ब्यावर में पदार्पण किया। प्रकाण्ड विद्वान, शास्त्रों के ज्ञाता स्वामीजी ब्यावर में विनोदीलालजी भार्गव की बगीची में ठहरे जो उत्तराखण्ड़ से ब्यावर पधारे थे। 
  
1.विरक्त, उदासीन, त्यागी महात्माः- भक्तगण श्रद्धालु, स्वामीजी के आहार हेतु फल, मिठाई, मेवा लाते जो स्वामी के पास रखते थे। स्वामीजी उन वस्तुओं को भक्तगण में तुरन्त बाॅंट देते थे अर्थात अपने पास कुछ भी नहीं रखते थे। स्वामीजी अपरिगृही सन्त और स्पष्ट वक्ता थे। 
2.महान तपस्वी सन्तः- ब्यावर प्रवास के आरम्भिक काल में स्वामीजी अधिकांश समय बगीची से बाहर ब्यावर के समीप ही जंगल में या चट्टान या पत्थर पर आसन लगाकर कई दिनों तक सम्माधीस्थ हो जाते थे। उनके पसीने से प्रचण्ड गर्मी में पत्थर गीले हो जाया करते थे। 
3.त्रिकालदर्शी एवॅं सिद्ध महापुरूषः- एक बार अचलदासजी सटाक ने अपने पिता की पुण्य स्मृति में एक विशाल सामूहिक भोज (साढे़ बारह न्यात) का आयोजन रक्खा। न्यात के तीन दिन पूर्व आकाश में घनघोर बादल छा गए। सटाकजी बडे़ चिन्तित थे कि न्यात का काम कैसे सलटेगा। उन्हेाने बापजी को अपनी माया समेटने को कहलाया। स्वामीजी की कृपा से दूसरे दिन मौसम ठीक हो गया और साढे़ बाहर धड़ों की न्यात सानन्द सम्पन्न हुई।
सन् 1942 में ‘अंगे्रजों भारत छोडो’ आन्दोलन के अन्तर्गत एक रात श्रीमुकुटबिहारीलाल भार्गव को पुलिस गिरफ्तार कर ले गई उस रात पूर्व ही स्वामीजी ने भार्गव साहिब की बगीची छोड़ दी। अचानक एक रात्रि को स्वामीजी पुनः बगीची में आ गए और प्रातः पुलिस ने भार्गव साहिब को छोड़ दिया। 
4.भक्तों की आसक्ति के प्रति समर्पित भावः- एक बार एक चम्पानगर के भक्त का पुत्र बहुत अधिक बिमार हो गया। उसके जीवित रहने की आस क्षीण थी। भक्त दौड़ा हुआ बापजी के पास आया और कहने लगा महाराजजी नैय्या डूबने वाली है। पुत्र मृत्यु शैय्या पर है। देखा नहीं जाता। इसलिये आपकी शरण में आया हूॅं। महाराजजी ने कहा भक्त सब ठीक है, घर जा। वह घर आया उसका पुत्र ठीक होने लगा। 
एक बार एक भक्त रतनलालजी फतेहपुरिया सन् 1966 में बिमार हुए। उन्होने महाराजजी के दर्शन की ईच्छा प्रकट की। स्वामीजी अपने भक्त के कष्ट को दूर करने हेतु अपनी शहर में नहीं आने की प्रतिज्ञा को तोड़ भक्त के घर पधारकर संकीर्तन किया। महाराजजी के ऐसा करने से उनका भक्त ठीक हो गया। 
5.संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान, शास्त्रों का गहन अध्ययनः- स्वामीजी को शास्त्रों का गहन अध्ययन होते हुए भी वे कभी प्रवचन नहीं करते परन्तु भक्तों की शंकाओं का सटीक समाधान करते और व्यवहारिक मार्ग दर्शन देते रहते थे। 
6.तत्वदर्शी व वीतराग मुनिः- एक बार एक दो भक्तों ने स्वामीजी से प्रश्न कर लिया गृहस्थी के समान साधु सन्तों को भी ब्याधि होती है कष्ट उठाना पड़ता है तो दोनों में क्या अन्तर है? इस अन्तर को समझाने के लिये स्वामीजी ने उन प्रश्नकर्ता भक्तों को एक सेठ और सेठानी के दुख के अन्तर का एक किस्सा सुनाकर समझााया। 
7.सर्वधर्म समभाव की मूरतः- प्रत्येक रवीवार को स्वामीजी की बगीची में साॅंयकाल 2-3 घण्टे कीर्तन कार्यक्रम नियमित चलता था जिसमें कबीर, दादू, राधा स्वामी, सिक्ख, वैष्णव, जैन मत वाले सभी लोग उपस्थित होकर भजन कीर्तन कर सत्संग का लाभ उठाते थे।
अन्त में स्वामीजी 125 वर्ष की उम्र में आषाढ़ बदी 6 मंगलवार विक्रम संवत् 2034 दिनांक 7 जून सन् 1977 ई. को ब्रह्मलीन हुए। अतः उनका जन्म सन् 1852 में हुआ था। 
ब्रह्मानन्दजी एक ऐसे सन्त थे जिन्हें न भूख सताती थी न प्यास न थकावट महसूस होती थी और न ही बैचेनी। उनके लिये लाभ-हानि, सुख-दुख, जीवन-मृत्यु, मान-अपमान समान थे। मित्र और शत्रु, अपने और पराये का भेद, जिनके जीवन में, कभी दृष्टिगोचर नहीं हुआ। जिन्होंने अपना जीवन तप और साधना में लगाकर विषय विकारों को दग्ध करके रख दिया हो, समाधीस्थ रहना जिनकी सहज दिनचर्या बन गई हो ऐसे दिव्य महापुरूष थे, वे। 
ब्रह्मानन्दजी महाराज के प्रति ब्यावर निवासियों का अगाढ़ विश्वास, अटूट श्रद्धा, उत्कृष्ट पूज्य भाव था और आज भी ऐसा भाव उनके प्रति है। उनके यहाँ, गरीब-अमीर, बालक-वृद्ध, विद्वान-अनपढ़, सन्त-राजनेता और महापुरूष सभी के साथ समान व्यवहार मिलना बोलना होता था। ऐसे थे वे समत्व भाव वाले महापुरूष, उदासीन व गुणातीत। 
उनकी तपस्या का प्रभाव आज भी उनके भक्तगण सच्ची श्रद्धा के साथ, अपने में महसूस करते है।   

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