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सन् 1725 ई. से लेकर आज सन् 2018 तक का 
ब्यावर का 294 साल का इतिहास 
ब्यावर शहर के इतिहासकार - वासुदेव मंगल, ब्यावर
छायाकारः- प्रवीण मंगल, ब्यावर

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ब्यावर मेर ईलाका हैं। इस क्षेत्र में मेर जाति का निवास रहा है। मेर जाति में रावत और मेहरात कौम हैं। मेरो ने सन् 1725 से 1823 ई. तक विभिन्न शासकों से नो लड़ाई की। इस प्रकार इन्होंने करीब सौ साल तक जंगल और पहाड़ो में जीवन व्यतीत किया।
सन् 1823 ई. में अंगे्रज इस ईलाके पर विजयी रहे। अगे्रजों ने यहां पर बी अवेयर के नाम से केन्द्रिय फौजी छावनी कायम की। कर्नल हैनरी हाल मे इस छावनी पर 13 साल तक शासन किया। धीरे-धीरे बोलचाल की भाषा में बी अवेयर का नाम ब्यावर हो गया। 
सन् 1835 ई. में कर्नल चाल्र्स जार्ज डिक्सन ने इस छावणी का दायित्व सम्भाला। डिक्सन ने इस छावनी को नागरिक बस्ती में तब्दील किया। इस ईलाके की किलेबन्दी करके बाहर से आकर बसने वाले निवासियों के जान माल की हिफाजत की। 
इस ईलाके के मरे निवासियों को ऊन और कपास के उत्पादन में सक्रिय सहायता प्रदान कर और इनके उत्पाद को बेचने का माकूल प्रबन्ध कर इन लोगों को समाज की मुख्य धारों से जोड़कर इनके जीवन स्तर में सुधार कर जीवन स्तर को ऊँचा उठाया। 
इस ईलाके की परिधि का अनुमान लगाकर डिक्सन ने इस क्षेत्र को मेरवाड़ा स्टेट में परिवर्तित कर दिया और ब्यावर को मेरवाड़ा स्टेट की राजधानी भी बनाया। मेरवाड़ा स्टेट मे नो परगने रखे गए। ब्यावर, मसूदा, विजयनगर, बदनोर, भीम, टाटगढ़, आबू, रायपुर, और जैतारण।
इस प्रकार शनैः शनैः ब्यावर ऊन और कपास रूई के व्यापार में राष्ट्रीय स्तर की मण्ड़ी बन गई। अंग्रेजी रियासत होने के कारण व्यापार के यातायात और संचार के साधन सड़क, रेल मार्ग परिवहन और व्यापार के सॅंवाद के ड़ाक और तार व टेलिफोन के साधन उपलब्ध कराये गए। 
इस प्रकार ब्यावर मे सन् 1872-76 में ड़ाक तार व रेल की सुविधा प्राप्त होने पर उधोग में भी ब्यावर द्रुतगति से तरक्की करने लगा। देखते देखते वहां पर 1875 से 1900 तक करीब दस बारह काॅटन जिनिंग व प्रेसिंग फैक्टिज लग चुकी थी।
साहूकारी ब्यापार में यहां पर बावन सर्राफा व्यापारी थे। अतः यहाॅ पर चाॅंदी, तेल, रूई का हाजिर व वायदा व्यापार जोरो पर था। ऊन और रूई के व्यापार के लिये बिलायती दफ्तर खोले गए। लोग दिसावर से यहां पर कमाने के लिये आते थे। अतः ब्यावर सेठाना शहर कहलाने लगा। यहां पर बाजार में व्यापार का दिनभर मेला लगा रहता था।
देखते देखते सन् 1925ई0 तक सूती कपड़े की तीन मिले कृष्णा, एडवर्ड व महालक्ष्मी मिल्स लग चुकी थी। इस प्रकार करीब पांच हजार लोग व्यापार में और पांच हजार उद्योग में सलंग्न हो गए और ब्यावर राजपूताना मे सामन्तीकाल मे व्यापार और उद्योग मे भारत व संसार के मानचित्र पर उभर कर आया। सन् 1925 में सबसे पहीले यहाॅ पर ब्यावर सेण्ट्रल कोपरेटिव बैक खोला गया।
ब्यावर उधोग और व्यापार को मेरवाड़ा स्टेट को राजस्थान में मिलाये जाने पर हमारी भारत की स्वतन्त्र सरकार के कारिन्दों ने हमारे द्वारा चुने गए रहनुमाओ ने नेशनाबूद करके आज ब्यावर को रसातल मे पहूुंचा दिया ।
हिन्दुस्तान मे सबसे पहीले हूण्डी बिल्टी का व्यापार ब्यावर से चालू किया गया। जिन्सो में ऊन, रूई, चाॅदी, तेल और अन्य जीन्सों के भाव ब्यावर के बाजार मे तय किये जाते थे।
साहूकारी व्यापार के लिये बावन सरार्फ थे। देव, ट्रस्ट, धर्मादा काम बहुत होता था। पाठशालाए, ओषधालय, धर्मशालाए अनाथालाय, देवालय, गौशालाए, आदि आदि बहुत कार्य होते थे।
हमारी सरकार का एक ही नजरिया रहा कि चूॅकि यह ईलाका मेरवाड़ा स्टेट और ब्यावर शहर एक अंगे्रज हुक्मरान का बसाया हुआ है। अतः इसे बर्बाद कर दो। अतः पिछले बहत्तर साल से इसे बर्बाद करके ही दम लिया और आज भी इसे बर्बाद कर रहे है। सरकार का ब्यावर के बारे मे यह संकीर्ण विचार ही ब्यावर के पराभव का कारण बना हुआ है। आज देश मे अराजकता, अनुशासनहीनता, बेरोजगारी, सूरसा की तरह मुहंबाये खड़ी है। आज तो हालात यह हो गए है कि सेवा कार्य को सरकार ने व्यापार बना लिया तो फिर बचा क्या? शिक्षा, चिकित्सा, धर्म, राजनिति न्याय जो सेवा कार्य हुआ करता था उसका ही व्यापार बना लिया सरकार ने तो फिर क्या बचा? जन प्रतिनिधियों व नोकरशाही मे काम के प्रति पारदर्शिता, जबाबदेही, समय सीमा, नैतिकता कुछ भी नही रहा तो फिर देश का बन्टाधार होता ही? अतः देश के कर्णधारो को सबसे पहीले माफियाओ के चंगुल से, स्वार्थ की राजनिति से परे जाकर देशहित व जनहित का सर्वोपरि रखकर काम करना होगा तब ही देश बच पायेगा अन्यथा कदापि नही जैसा उदाहरण सर्व धर्म सम्भाव का डिक्सन परदेशी ने पेश किया है।

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