21वीं सदी ब्यावर के लिए कैसी
होगी? आकलन करते रहिये
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करेन्ट अफेयर आर्टिकल: वासुदेव मंगल
ब्यावर की प्रजा को यह जानकर आश्चर्य होगा कि ब्यावर को अजमेर जिले का सब
डिविजन 1 नवम्बर सन् 1956 में बनाया गया तब से लेकर अब तक इस शहर पर क्या
क्या सितम ढहाये गये हैं, अब भी रुकने के नाम नही ले रहे हैं।
सबसे पहिले तो एक सो इक्कीस साल की क्रानिकल ट्रेडीशनल मर्केण्टाईल
एक्टिविटीज् को धराशायी की गई। फिर एक एक करके समस्त बफर स्टेट के
प्रशासनिक कार्यालयों को ब्यावर से हटाये। फिर धीरे धीरे सन् 2000 तक पुराने
कल कारखानों की इतिश्री करदी गई। अब प्रश्न उठना लाजिमी है कि ऐसा क्यों
किया गया तो उत्तर साफ है, सन् 1975 मे ब्यावर की जमीं पर एक नया कारखाना
लगाने के लिए कर्णधारों ने आधार बनाना शुरू किया डिडवाना के कोरपोरेट घराने
के बांगड़ सेठ के सिमेण्ट कारखाने के लिए।
ब्यावर की भोली भाली अशिक्षित ग्रामीण और शहरी जनता धीरे धीरे सिमेण्ट
प्लाट के कार्य कलापों की चिकनी चुपड़ी वालों के झाँसों मे फंसने लगे। सन्
1975-80 मे प्लाण्ट प्रोडक्शन मे आया। नियमानुसार कोरपोरेट सामाजिक
उत्तरदायित्व पर खर्च की जाने वाली राशि का जिले के विकास हेतु प्रावधान भी
साथ साथ किया जाता है क्षेत्र की औद्योगिक इकाईयो द्वारा।
आप देखिये यह अकाउण्टस का एक तकनीक पहल है जिसे आम नागरिक नहीं जानता।
सामान्यतया होता यह है कि ऐसे बजट की रकम को बड़ी सफाई से विकास के कार्यों
में खर्च नहीं किया जाकर निजिस्तर पर अन्य कार्यक्रमों में मिलीभगती से
खर्च कर दिया जाता है और ब्यावर के विकास के लिए सी एस आर मद मे लिखी जाती
नहीं है पिछले पचास सालों से सिमेट फैक्ट्री द्वारा कारपोरेट सामाजिक
उत्तरदायित्व के खर्च के कालम में। यह कारगुजारी वर्तमान के चार्टड
एकाउण्टस के मैनीपुलेशन की हर स्तर पर होने लग गई है जिससे भ्रष्टाचार तेजी
से पाँव पसार रहा है और देश खोखला होता जा रहा है। सिस्टम को दीमक यहाँ पर
लगी हुई है लगभग सभी सरकारी स्तर पर। अतः नैतिक मूल्यों के हास के कारण ऐसा
हो रहा है मिली भगती के खेल से ही देश का विकास गर्त मे चला गया। कभी नई बनी
हुई सड़क टूटती है तो कभी ब्रिज। कभी मकान धराशायी होता है तो कभी सरकारी
दफ्तर की ईमारात। जब तक नैतिक मूल्यों का विकास आचरण में नहीं होगा तब तक
विकास का मुद्दा गौण होगा। यह सिलसिला ऐसे ही चलता रहेगा। रुकने वाला नहीं
चाहे कोई भी राजा सेवक बनकर राजा की कुर्सी पर बैठ जाए। यहाँ पर इस कुरीति
पर अंकुश लगाना अत्यन्त आवश्यक हो गया है। लेकिन राज करने के सारे सिस्टम
में ही यह रोग लगा है तो फिर तो देश का भगवान ही मालिक है। देश की राज करने
वाली प्रत्येक पार्टी इस बिमारी से ग्रसित है। इसका क्या ईलाज?
आप ब्यावर का उदाहरण ले लिजिए। पूरे इलाके का भट्टा बैठा दिया। अब जिला
बनाया गया है। अगर ईमानदारी से प्रयास किये जाय तो ब्यावर फिर से अतीत के
गौरव की तरह सोने की चिड़िया बन सकती है।
आपको ब्यावर का एक दूसरा उदाहरण दी तिजारती चैम्बर सर्राफान गौशाला का भी
जमीनों का बता रहे है। आरम्भ से सरफान तिजारत के सभी धर्मादा कार्य तिजारत
चैम्बर न्यास के अधिन सम्पन्न होते रहे है। आप देखिये गौशाला से व अन्य
कार्यो से सम्बन्धित तिजारती सर्राफान जमीन चारों दरवाजो बाहर ब्यावर में
स्थित रही है। चाहे वह जमीन कहीं भी स्थित रही हो सामाजिक सरोकार के लिये
धर्मादा पेटे एक जरिया था सराफान तिजारत मे जिसके तहत जानवरो का बसेरा,
धर्मशाला, औषधालय आदि चलाए जाते रहे। सराफान व्यापार ही नही सभी तरह के
व्यापार एवं उद्योगो मे यह परिपाटी संचालित रही। गौशाला की जमीन, साण्ड का
तिबारा, मेवाड़ी दरवाजे बाहर कुत्तों का नोहरा बिजयनगर रोड पर गौशाला,
धर्मशाला चांग गेट के अन्दर दक्षिण दिशा में और गौशाला देलवाड़ा रोड़ स्थित,
गौशाला मौजा गढ़ी थोरियान में 86 बीघा जमीन पर गौशाला के खेत स्थित चलें आ
रहे थे उस जमीन को सन् 2002 में गौशाला के तत्कालिन ट्रस्टियों ने जमीन का
गलत नामान्तरण कराकर भूमाफिया को सारी खेत की जमीन को खुर्द बुर्द कर दी।
अभी इसका आलम यह कि इस प्रकरण मंे टालमटोल लीपापोती की जा रही है तिजारती
चेम्बर सराफान औषधालय जो आरम्भ से डिग्गी मोहल्ला चौराहे के पिनारान मार्ग
पर चला आ रहा था उसको भी निकट अतीत मंे बिना कारण बन्द कर दिया गया।
यहां तक की न्यास के अन्तर्गत किये जाने वाले अतीत के समस्त सामाजिक विकास
के उत्तरदायित्व वाले सभी कार्यों को एक एक करके सभी को बन्द कर दिया जाकर
जमीनों को, भवनों को, इमारतों को एक एक करके खुर्द बुर्द दिन प्रतिदिन किया
जा रहा है चाहे वह पाठशाला हो, अनाथालय हो, धर्मशाला हो, गोशाला हो,
नारीशाला हो, औषधालय हो, हास्टल हो, कुए बावडी हो आदि आदि को खुर्द बुर्द
किया जा रहा है ब्यावर शहर के व्यापार की नींव तो आरम्भ मे स्थापना से
न्यास पर ही टिकी हुई है। सो-सवासो, डेड सो सालों की न्यासिय संस्थाओं को
खुर्द बुर्द किया जा रहा है यह ट्रेंड स्वतन्त्रता के बाद से निरन्तर आज तक
चला आ रहा है।
अब ब्यावर जिला बनाया गया है। अगर तभी इसको जिले मे बरकरार रखा जाता तो
ब्यावर का यह हश्र नहीं होता जो आज देखने को मिल रहा है। आप देखिये ब्यावर
की कौनसी पुरानी सामाजिक धरोहर बची है। यह सब ब्यावर के बर्बादी की कहानी
बता रही है। चाहे सनातन स्कूल हो या फिर शान्ति जैन स्कूल।
अब तो ब्यावर को नई रोशनी देने वाला कोई चिराग जिले का होना चाहिये जो बुझे
हुए दिये को रोशन कर सके। अतः यह सब दारमदार वर्तमान के शासन-प्रशासन पर है
और निर्भर करता है। देखते है इसका उत्तर भविष्य में छिपा हुआ है। आने वाला
वक्त ही इसका माकूल जवाब दे सकेगा।
हमने ब्यावर के अतीत को देखा वर्तमान मे जी रहे है और भविष्य के विकास के
इन्तजार में है। अब तो आने वाला वक्त ही बतायेगा ब्यावर के विकास को जब तक
शायद लेखक भी इस विकास को नही देख सकेंगें इस वक्त की नजाकत को। लेखक ने
अपने भाव विचार यहां पर लिख दिये है। आप सभी का बहुत बहुत शुक्रिया।
वर्तमान की उद्योगिक इकाईयाँ ही कोरपोरेट सोशल रेस्पोन्सिबिलिटी (सी.एस.आर)
ही ब्यावर जिले के विकास की ईबारत लिखेंगी। यह व्यापार और उद्योगो ही
ब्यावर जिले के विकास का पैमाना तैय करेगें। अगर पुराने व्यापार उद्योगों
को सरकार संरक्षण देती रहती तो अभी ये पुरानी सामाजिक संस्थाए चालू रहती।
आप देखिये गढ़ी का तालाब, सेदरिया का तालाब, बिचड़ली तालाब, बगीचे, पार्क,
चार दीवारी, बगीचियाँ, स्कूल, अस्पताल, धर्मशालाएं, कँुए, बावडी, अनाथालय,
हास्टल यहां तक की अंग्रेजी रियासत की सारी जल, जंगल, जमीन सारी की सारी
धीरे धीरे करके तब से लेकर अब तक सारी की सारी अतिक्रमण की भेंट चढ़ गई। बची
हुई आस पास की सारी जमीन पर कोरपोरेट घरानो का राज हो गया बाकी क्या बचा?
आप ही देख लिजिए ब्यावर की दुर्दशा। इसी प्रकार श्यामजी कृष्ण वर्मा के
राजपूताना काटन प्रेस की जमीन को भी रेल्वे ऑथोरिटी को खुद बुर्द कर दी गई
अब तो ब्यावर जिले के विकास की गंगा बहने दो। बांगड सेठ ने ब्यावर की मिट्टी
से देश में सो कारखाने लगा लिये ब्यावर को बरबाद करके। क्या मिला उसे?
ब्यावर की जनता तो हमेशा याद रखेगी उसके कारनामे।
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