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15 अगस्त 2025 को क्रांतिकारी योगी
अरविंद घोष
की 154वीं जयन्ति पर विशेष
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इतिहासकार - वासुदेव मंगल
योगी अरविंद घोष ने कहा था मेरे तीन पागलपन हैं-
पहला पागलपन है, मेरा दृढ़ विश्वास है कि भगवान ने जो गुण, प्रतिभा, ऊंची
शिक्षा, विद्या और धन दिये हैं, वे सब भगवान के ही हैं। परिवार के
लालन-पालन के लिए जितनी भी जरूरत हो, और जो एकदम जरूरी है, उतना ही खर्च
करने का हमारा अधिकार है, जो बाकी बचे, उसे भगवान को लौटा देना ठीक है। अगर
मैं सारा धन अपने लिए, सुख के लिए, विलास के लिए खर्च कर दूं तो मैं चोर हो
जाउंगा।
दूसरा पागलपन है कि मैं किसी भी तरह भगवान का साक्षात्कार करूं। अगर ईश्वर
है तो उनके अस्तित्व को अनुभव करने, उनका साक्षात करने का कोई न कोई रास्ता
अवश्य होगा।
तीसरा पागलन है जहां अनेक लोग स्वदेश को एक जड़ पदार्थ, खेत-खलिहान,
वन-पर्वत या नदी के नाम से जानते हैं, वहां मैं स्वदेश को मां के रूप में
जानता हूँ। उसके लिए मेरे अन्दर भक्ति है। मैं उसकी पूजा करता हूँ। मां के
वक्षस्थल पर बैठकर अगर कोई राक्षस उनका खून चूसने पर उतारू हो, तो ऐसे समय
में बेटा क्या करता है? क्या निश्चिंतता के साथ खाने बैठ जाता है? या
पत्रि-बच्चों के साथ आमोद-प्रमोद में डूब जाता है, या मां के उद्धार के लिए
दौड़ पड़ता है?
ये पंक्तियां उस पत्र से उदृत हैं जो भारत के स्वतंत्रता संग्राम के महान
सेनानी, क्रांतिकारी अरविंद घोष ने 30 अगस्त 1905 को अपनी पत्नी मृणालनी को
बड़ौदा से लिखा । अलीपुर बम कांड के संदर्भ में जिन अरविंद घोष का नाम उस
समय भारत के बच्चे- बच्चे की जबान पर था, वही अरविंद आगामी वर्षों में महान
योगी के रूप में जाने गये। अरविन्द घोष नाम में न जाने कैसा आकर्षण है कि
देश विदेश से हजारों लोग उस असाधारण व्यक्तित्व की कर्मस्थली पाण्डिचेरी
में प्रतिदिन आकर उनकी समाधि पर अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।
बचपन इंग्लैंड में अरविंद घोष का जन्म 15 अगस्त 1872 को हुआ। बचपन में उनका
नाम ओरोविन्दो एक्रोयड घोष था। ऐसा लगता है कि उनके पिता डा. कृष्णधन घोष
ने अंग्रेजों के प्रति अपने अत्यधिक अनुराग के कारण बेटे के नाम के साथ उस
अंग्रेज महिला (मिस एनेट एक्रोयड) का नाम भी जोड़ दिया जो अरविन्द के नामकरण
के समय वहां उपस्थित थीं । अरविंद जब पांच वर्ष के थे तो उन्हें दार्जिलिंग
के लॉरेटो कान्वेंट स्कूल में पढ़ने भेजा गया। बालक अरविंद अभी 7 वर्ष के ही
थे कि 1879 में उनके पिता डा. घोष उन्हें इंग्लैंड ले गये। मेनेचेस्टर में
उन्हें डूएट दंपत्ति की देखरेख में रखा गया। 1884 में अरविंद को सेंट पॉल
स्कूल में भर्ती कराया गया, जहां वे 1889 तक पढ़े। 1890 में किंग्स कॉलेज
में ग्रेजुएट कोर्स में प्रवेश के साथ-साथ अरविंद आई.सी.एस. की प्रवेश
परीक्षा में भी बैठे, जिसमें अच्छे अंकों से पास होने पर उन्हें छात्रवृत्ति
मिली। कैम्ब्रिज में अध्ययन के दौरान ही अरविंद की राजनीति में रूचि बढ़ी।
भारत की गुलामी की बात उन्हें अंदर तक पीड़ा देती थी। संभवतरू इसी मानसिक
स्थिति में उनका आई.सी.एस. के लिए कोई आकर्षण नहीं रहा। चूंकि पिता की
तीव्र इच्छा थी कि वे आई.सी.एस. बनें, अतः इस बंधन से छुटकारा पाने के लिए
उन्होंने अपने आपको घुड़ सवारी में अयोग्य घोषित करवाया। बाद में यह भी पता
चला कि कैम्ब्रिज में उन्होंने भारत की राजनैतिक स्थिति के बारे में जो
भाषण दिये थे, उसके कारण भी अधिकारियों ने अरविंद को आई.सी.एस. से बाहर रखने
का निश्चय किया था।
बड़ौदा में नौकरी
1893 में अरविंद भारत वापिस आ गये। उनकी प्रतिभा और आई.सी.एस. में परिवीक्षा
अध्ययन के बारे में जानकर बड़ौदा के महाराजा सियाजी राव गायकवाड़ ने उन्हें
बड़ौदा राज्य में काम करने के लिए नियुक्ति दे दी। 8 फरवरी 1993 को युवक
अरविंद ने बड़ौदा राज्य के भूमि व्यवस्था विभाग में काम शुरू किया। वहां से
उन्हें मालगुजारी और फिर सचिवालय में स्थानांतरित किया गया। उसके बाद उन्हें
कॉलेज भेज दिया गया, जहां वे अंग्रेजी के प्रोफेसर के रूप में नियुक्त हुए।
राजनैतिक चिंतन-मनन और क्रांतिकारी विचार बड़ौदा में ही उभरने लगे थे। देश
की आजादी के लिए संघर्ष कर रहे अनेक लोगों से भी यहां उनका परिचय हुआ। 1899
में बंगाली युवक यतीन्द्र नाथ बनर्जी बड़ौदा आया । और भी कई क्रांतिकारियों
से इस बीच उनका परिचय हुआ। अप्रैल 1901 में एक उच्च सरकारी अफसर भूपाल
चन्द्र बसु की सुपुत्री मृणालनी से उनकी शादी हुई। शादी के समय अरविंद 29
वर्ष के थे और मृणालनी 14 वर्ष की । अन्य लोगों के साथ विवाह के अवसर पर
प्रसिद्ध वैज्ञानिक सर जगदीश चन्द्र बसु भी उपस्थित थे। चूंकि अरविंद दिन
प्रतिदिन क्रांतिकारी कार्यक्रमों में गहरी रूचि लेने लगे थे, अधिकांश समय
इन्हीं कार्यों में बीतता था, संभवतः इसीलिए, जैसा कि महापुरूषों के साथ
होता है, अरविंद का वैवाहिक जीवन भी बहुत सफल नहीं रहा ।
अक्टूबर 1902 में स्वामी विवेकानंद की शिष्या भगिनी निवेदिता बड़ौदा आयीं ।
निवेदिता के बारे में अरविंद लिखते हैं ष्वह क्रांतिकारी नेताओं में से एक
थीं। जब कभी वे क्रांति के बारे में बोलती थीं तो उनकी अंतरीत्मा, उनका
सच्चा व्यक्तित्व बाहर आ जाता था । भगिनी निवेदिता सही अर्थों में क्रांति
की प्रेरणा थीं ।ष् दिसम्बर 1902 में अहमदाबाद में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ,
जहां अरविंद की मुलाकात बाल गंगाधर तिलक से हुई। तिलक अरविंद के क्रांतिकारी
विचारों से बहुत प्रभावित हुए। वैसे भी लोकमान्य तिलक ने श्इन्दुप्रकाशश्
नामक पत्रिका में अरविंद के कई लेख पढ़े थे और वे इस युवक से मिलने को
उत्सुक थे।
वंदेमातरम’ के लिए राजद्रोह का मुकदमा
18 जून 1907 को अरविंद ने बड़ौदा की नौकरी से त्याग पत्र दे दिया। वे कलकत्ता
आ गये और सक्रिय रूप से क्रांतिकारी कार्यक्रमों में भाग लेने लगे । कलकत्ता
आकर उन्होंने ‘वंदे मातरम’ पत्रिका का संपादन प्रारम्भ किया। यह पत्रिका
अपने क्रांतिकारी लेखों के लिए जानी जाती थी। उनके एक लेख ‘हिन्दुस्तानियों
के लिए राजनीति’ से अंग्रेजी शासन में इतना बबेला मचा कि 30 जुलाई 1907 को
‘वंदे मातरम’ के कार्यालय की तलाशी ली गई और राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया।
16 अगस्त को अरविंद को गिरफ्तार करने का वारंट जारी हुआ। 23 दिसम्बर 1907
को अरविंद राजद्रोह के इस मुकदमे से रिहा कर दिये गये अलीपुर जेल की वह
कोठरी जहाँ अरविंद को रखा गया क्योंकि सरकार यह प्रमाणित नहीं कर पायी कि
अरविंद ही इस पत्रिका के संपादक हैं।
रवीन्द्र नाथ टैगोर की अग्रिम श्रद्धांजलि
इस घटना से एक मनोरंजक तथ्य जुड़ा हुआ है। कविवर रविन्द्र नाथ ठाकुर ने सोचा
कि अरविंद को जेल की सजा तो होगी ही, इसलिए उन्होंने बंगला में श्री अरविंद
को श्रद्धांजलि लिखी और प्रकाशित कर दी। बाद में जब अरविंद छूट कर आये और
रवीन्द्र नाथ टैगोर उनसे मिलने गये तो टैगोर उन्हें गले लगाते हुए बंगला
में बोले- क्या बात ! आपने हमें ठग लिया! अरविंद ने अंग्रेजी में उत्तर दिया-
आपको ज्यादा दिन इंतजार न करना होगा। और हुआ भी ऐसा ही। 30 अप्रैल 1908 को
माणिकतल्ला के क्रांतिकारी दल के दो युवकों - खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी
ने अंग्रेजों पर बम फेंका। दो अंग्रेज महिलाओं की मृत्यु हो गयी। 2 मई 1908
को क्रांतिकारियों के अड्डे माणिकतल्ला में पुलिस रेड हुई। दूसरे दिन सुबह
श्री अरविंद के घर पर छापा मारा गया। क्रांतिकारियों के इस दल पर प्रसिद्ध
अलीपुर बमकांड मुकदमा चलाया गया। यह मुकदमा बहुत ही सनसनी पूर्ण था, जिसमें
4,000 दस्तावेज एवं 300-400 प्रदर्शित वस्तुऐं पेश की गयी थीं, जिनमें
विस्फोटक, बम, रिवाल्वर आदि थे। 206 लोगों ने गवाहियां दीं। मुकदमा 131 दिन
तक चला। सरकार की ओर से फौजदारी के सबसे प्रसिद्ध वकील यार्डली नार्टन थे
जबकि मुख्य अभियुक्त अरविंद की ओर से सी. आर. दास (चित्तरंजन दास) ।
सी. आर. दास ने की आठ दिन बहस
आज यह बात इतिहास के पन्नों में आ चुकी है कि देशबंधु सी.आर. दास ने सारी
चीज को सिद्धांत और राष्ट्रीय अधिकारों की सीमा तक इतना उठा दिया कि मुकदमे
का रंग रूप ही बदल गया। श्री अरविंद की सफाई में दिया गया उनका आठ दिन का
भाषण इन प्रसिद्ध शब्दों के साथ समाप्त होता हैः-
“मेरा आपसे यह निवेदन है कि इस वाद-विवाद के शांत हो जाने के बाद, इस हलचल
के बहुत बाद, जब यह आंदोलन समाप्त हो चुका होगा, इनके मर कर चले जाने के
बाद भी लोग इन्हें देश-प्रेम के कवि, राष्ट्रीयता के देवदूत और मानव जाति
के प्रेमी के रूप में देंखेंगे। इनके मर मिटने के बहुत अरसे के बाद इनके
शब्द केवल भारत में ही नहीं, सुदूर देशों और सागरों के पार गुंजित और
अनुगुंजित होते रहेंगे। इसलिए मैं कहता हूँ कि इस स्थिति का मनुष्य केवल इन
न्यायालय के सामने ही नहीं, बल्कि इतिहास के उच्चतम न्यायालय के आगे खड़ा
है।
14 अप्रैल 1909 को जूरी ने अरविंद को निर्दाेष घोषित किया और 22 दिन बाद
उन्हें जेल से मुक्त कर दिया गया। 25 दिसम्बर 1909 को ‘कर्मयोगिन’ पत्रिका
में अरविंद का लेख ‘मेरे देशवासियों के प्रति’ प्रकाशित हुआ। अंग्रेज सरकार
ने इसे जाने का निर्देश किया। इस प्रकार 28 मार्च 1910 को छद्म नाम से
डुप्ले नामक जहाज में सवार होकर अरविंद कलकत्ता से पौण्डिचेरी जाने के लिए
रवाना हुए।
पौण्डिचेरी जाने से पहले अरविन्द घोष ने पूरे भारत का भ्रमण किया था उस
भारत के भ्रमण काल में वो राजस्थान के ब्यावर शहर में भी आये थे और उन्होंने
चम्पालाल रामनाथ के मालिक सेठ चम्पालाल जी का एडवर्ड मिल में आथित्य
स्वीकार किया उनके आथित्यकाल में उनके साथ एक बालक भी था जो बाद में स्वामी
कुमारानन्द के नाम से प्रसिद्ध हुए। अरविन्द घोष का ब्यावर में इतना प्रभाव
हुआ ब्यावर की धरती से कि उन्होंने यहां रहते हुए रासबिहारी बोस को लिखा कि
ब्यावर में क्रान्तिकारी कार्य करने की अनुकूल स्थिति है अतः यहां आकर के
यह कार्य करें। अतः ब्यावर में चूंकि अरविन्द घोष उसी समय आये थे इसलिए
अरविन्द घोष का यहां प्रभाव बहुत अधिक रहा द्विजेन्द्र नाथ नाग ब्यावर में
योगिराज अरविन्द के साथ होते हुए पौण्डिचेरी गये। अरविन्द घोष ने पौण्डिचेरी
में अरविन्द आश्रम खोला। वहां द्विजेन्द्र नाथ नाग उर्फ स्वामी कुमारानन्द
ने अपनी शिक्षा दीक्षा पूर्ण की। सन् 1918 में द्विजेन्द्र नाथ नाग वापस
ब्यावर आ गये और अपनी कर्मभूमि ब्यावर को ही बनायी और ब्यावर के चांगगेट
बाहर चिरंजीलाल भगत की बगीची में प्रवास करने लगे। द्विजेन्द्र नाथ नाग
उर्फ स्वामी कुमारानन्द चूंकि बहुत ज्यादा क्रान्तिकारी विचारों के
व्यक्तित्व थे इसलिए उनका कृतित्व भी क्रान्तिकारी ही रहा। उनके सम्पर्क
में जो भी कोई आया उसने उनके विचारों को बहुत सम्मान किया और बहुत सम्मान
के साथ उनका आदर करते रहे। योगी अरविन्द घोष चूंकि उन्होंन ब्यावर की पृष्ठ
भूमि को देखा और यहां की पृष्ठभूमि भौगोलिक और प्राकृतिक भूमि थी और अरावली
पर्वत श्रंखलाओं से आच्छादित थी और जंगल बहुत भियावान थे इसलिए गोरिल्ला
युद्ध करने के लिए यह भूमि अनुकुल साबित हुई। चूंकि उस समय ब्यावर तीन देशी
रियासतों से मारवाड़, मेवाड़ और ढूंढार से केन्द्रिय स्थल पर स्थित था इस जगह
अग्रेंजी राज था इसलिए यहां क्रान्तिकारी गतिविधियों को अन्जाम देने का
अनुकूल वातावरण था। यहां पर देश के समस्त राज्यों से क्रान्तिकारी
प्रशिक्षण लेने आते थे उस प्रशिक्षण में वो यहाँ हथियार बनाने और चलाने की
शिक्षा लेते थे जो पंजाब, उत्तर भारत, मध्य भारत, बम्बई प्रान्त और बंगाल
प्रान्त से आते थे। अतः ब्यावर क्रान्तिकारीयों की कर्मभूमि, शरणस्थली और
उनकी शिक्षा स्थली रही अतः इसकों भारत की आजादी की क्रान्तिकारी तीर्थ स्थली
भी कहा जाये तो कोई अतिशियोक्ति नहीं होगी।
पौण्डिचेरी के लिए पलायन
4 अप्रैल 1910 को अरविंद पौण्डिचेरी पहुंचे। फ्रेंच शासित होने के कारण इन
दिनों पौण्डिचेरी ब्रिटिश पुलिस की निगाह से बचने वाले राजनैतिक लोगों के
लिए आश्रय स्थान बन गयी थी। कई निर्वासित लोग यहां थे, जिनमें प्रसिद्ध कवि
सुब्रमण्यम भारती प्रमुख थे। ऐसे लोगों का एक समूह बन गया था। जब इन लोगों
को पता चला कि बंगाल के प्रसिद्ध क्रांतिकारी अरविंद घोष यहां आ रहे हैं तो
अनेक लोग उनके स्वागत के लिए बंदरगाह पर तैयार थे। श्री अरविंद को शंकर चेटी
के मकान में ठहराया गया। यह वही मकान था जिसमें वर्षों पहले स्वामी
विवेकानंद ठहरे थे। पौण्डिचेरी में आकर श्री अरविंद का राजनैतिक चिंतन-मनन
और सक्रियता सब कुछ बीते कल की बात थी। अब वे पूर्णतः योग साधना को समर्पित
थे।
29 मार्च 1914 श्री अरविंद के जीवन में एक महत्वपूर्ण दिन था। इसी दिन उन्हें
एक ऐसे असाधारण व्यक्ति से मिलने का अवसर मिला, जिन्हें उन्होंने बाद में
आध्यात्मिक परम्पराओं में श्रीमांश् के रूप में प्रतिष्ठित किया। ये महिला
थीं पाल रिचर्ड नामक एक फ्रांसीसी अधिकारी की पत्नी, जिन्होंने श्री अरविंद
को अपने गुह्य अंतर्दर्शन में देखा था। बाद के दिनों में श्री अरविंद
निरंतर योग साधना में रत रहे और पाण्डेचरी आश्रम की व्यवस्था का काम संभाला
श्रीमान ने। 5 दिसम्बर 1950 को श्री अरविंद ने देह त्याग किया। आश्रम में
ही उनकी समाधि बनाई गयी, जो आज कर्मयोग के प्रेरणा स्थल के रूप में
प्रतिष्ठित हैं।
15-08-2025
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