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 द्वारा:  वासुदेव मंगल  

मेरा जन्म प्रेरणामयी, आनन्दमयी, दिव्य-विभूति माताश्री गोमती देवी की कोख से मिति आश्विन शुक्ला विजय दशमी विक्रम संवत् 2001 को मेष लग्न में रात्री को आठ बजकर पच्चीस मिनट पर तदनुसार ईसवी सन् 1944 सितम्बर माह की 28 तारीख को ब्यावर, पुरानी सिनेमा गली, रामगढ़िया नोहरा में हुआ था। मेरे पिताश्री सेठ साहिब श्रीमान् बाबूलालजी हरलालका है। पितामह जन्मी श्री झाबरमलजी है। दत्तक पितामह श्रीमान् रामविलासजी गाव पोस्ट मंडावा जिला झुंझनु शेखावाटी है। ब्यावर मुकाम पिताश्री के नानाश्री सेठ साहिब गजानन्दजी पौद्दार रामगढ़वाले है जहाॅं पर मेरा जन्म हुआ। मेरे नानाश्री श्री लक्ष्मीनारायण जी सौंथलिया मामाश्री रामविलासजी हाल मुकाम ब्यावर निवास ड़िग्गी मौहल्ला। माताश्री के मामाजी सेठ केवलरामजी केड़िया निवास ड़िग्गी मौहल्ला, ब्यावर है।

आज भी मेरा निवास इसी नोहरे में बाहर के चैक के उत्तरी हिस्से में मेरे निज के द्वारा बनाये गये चार मंजिला परिसर गीता-कुॅंज है जिसके सामने दक्षिण की तरफ अन्दर और बाहर वाले चैक में मेरा पैतृक निवास है। गीता-कुॅंज में, मैं मेरे चार पुत्रगण जिनके नाम प्रवीण, पवन, अरूण, अनिल तीन पुत्रवधु श्रीमति विकुल, सुमन, अंजु एक पौत्री सुरभि, दो पौत्र सौरभ व कृष्णकान्त का निवास स्थान है। गीता-कुॅंज के ंभूमि तल पर मेरे पुत्र प्रवीण मंगल का प्रतिष्ठान मंगल फोटो स्टुडियो के नाम से हैं। इसी दुकान में पवन व अनिल के एस. टी. डी. पी. सी. ओ. भी कार्यरत है। गीता-कुॅंज मेरे द्वारा सन् 1991 में बनवाया गया जिसमें प्रवेश 18 नवम्बर, 1991 को विधि-विधान से किया गया। यह परिसर मेरे द्वारा बैंक से गृह ऋण लेकर बनाया गया। इस परिसर का नाम मेरी धर्मपत्नि श्रीमति गीतादेवी मंगल के नाम पर गीता-कुॅंज रखा। इस समय मैं 58वें साल में चल रहा हूॅ।

मेरे दादाश्री झाबरमलजी के दादाश्री श्रीमान् सेठ साहिब श्रीरामजी थे। उनके दो पुत्र थे। बडे़ दिलसुखरायजी और छोटे रामलालजी थे। दिलसुखरायजी के एक पुत्र श्री रामविलासजी थे और रामलालजी के चार पुत्र क्रमशः महादेवजी, मूलचन्दजी, भीमराजजी, झाबरमलजी थे। रामविलासजी के कोई पुत्र नहीं होने के कारण मेरे पिताजी बाबूलालजी उनके दत्तक पुत्र बने। झाबरमलजी के दो पुत्र थे। बडे़ मेरे पिताजी श्री बाबूलालजी व छोटे चिरंजीलालजी थे। बडे़ दादाजी मूलचन्दजी के भी कोई पुत्र नहीं होने के कारण चिरंजीलालजी उनके गोद चले गये। मेरे दादाजी झाबरमलजी का विवाह रामगढ़ शेखावाटी में सेठ साहिब श्रीमान् गजानन्दजी पोद्दार की सूपुत्री पूर्णिमा बाई के साथ हुआ था जो मेरी दादी साहिबा है। मेरे पिताश्री व चाचाश्री के अतिरिक्त एक मेरी भुआ श्रीमति गिनीया बाई भी हैं जिनका विवाह ब्यावर में डिग्गी मौहल्लें में श्री रामचन्दरजी लोहिया (गर्ग) के साथ हुआ। रामचन्दरजी 25 मार्च, 1992 को दिवंगत हो गये। गिनीया भुआ जिसका जन्म सन् 1917 में विक्रम संवत् 1974 में हुआ आज भी मौजूद हैं जिनकी उम्र वर्तमान में 85 साल हैं। मेरे पिताजी का जन्म 7 अक्टुबर, 1910 विक्रम संवत 1967 में मंडावा में हुआ था और चाचाजी का जन्म सन् 1912 विक्रम संवत 1969 में हुआ था।

पिताश्री के नानाश्री सेठ गजानन्दजी के कोई लड़का नहीं था। उन्होनें अपने परिवार से एक पुत्र बालकिशनजी पोद्दार को गोद लिया। लेकिन नानीजी मोहरीबाई की उनसे नहीं बनी तब मेरे दादा झाबरमलजी दादी पूर्णिमादेवी पिता बाबूलालजी चाचा चिरंजीलालजी भुवा गिनीयादेवी सहित ब्यावर (नया नगर) में सन् 1920 में गजानन्दजी पोद्दार के यहाॅं स्थायी तौर पर निवास करने के लिये मंडावा से आ गये। उस वक्त मेरे पिताजी की उम्र 10 साल चाचाजी 8 साल व भुवा 3 साल की थी। चूंकि हमारी दुकान के सामने सेठ घीसूलालजी जाजोदिया के मकान के ऊपर वाले कमरे में कांगे्रस का दफ्तर था इसलिए बहुत से स्वतन्त्रता सेनानी हमारी दुकान के बाहर बरामदे के तख्ते व मुड्डों पर बैठे रहते थे। अतः मेरे पिताजी व चाचाजी भी राजनिति में सक्रिय दिलचस्पी रखने लगे। ऐसे लोगों में जयनारायण व्यास, गोपीकृष्ण विजयवर्गीया, जयनारायण मंगल इत्यादि इत्यादि।

गजानन्दजी पोद्दार का ब्यावर में कारोबार युनाईटेड़ काॅटन एण्ड वूल जिनिंग व प्रेसिगं कम्पनी थी जो चांग गेट बाहर नाड़ी का पेच के नाम से प्रसिद्ध थी व मेसर्स रामबगस खेसीदास पोद्दार सराफा फर्म फतेहपुरिया बाजार में दुकान थी जो रामगढ़िया नोहरे के साथ ही है। इसके अतिरिक्त विजयनगर में पौद्दार जिनिंग फैक्ट्री भी थीं। उस वक्त ब्यावर में ऊन व रूई की मण्डी के साथ-साथ 52 सर्राफा भी थे। इस फर्म पर नाडी के पेच की रोकड़, विजयनगर फैक्ट्री की रोकड़ के साथ-साथ 52 सर्राफों की रोकड़ भी थी। इसके अतिरिक्त फतेहपुरिया पंचायती के बर्तनों की देखरेख की जिम्मेवारी भी गजानन्दजी पौद्दार के पास इस नोहरे में ही थी।

सन् 1880 में बोम्बे, बडोदा सेण्ट्रल इण्डिया रेल्वे द्वारा दिल्ली से अहमदाबाद तक रेल्वे लाइन बिछाई गई थी तब ब्यावर इस रेल्वे लाइन का मध्यवर्ती रेल्वे स्टेशन बनाया गया। ब्यावर में रेल्वे लाइन आ जाने के बाद ब्यावर में उद्योग-धन्धे तेजी से स्थापित होने लगे। सबसे पहिले सन् 1892 में श्यामजी कृष्ण वर्मा ने राजपूताना काॅटन पे्रस की रूपबानी सिनेमा के पीछे स्थापना की। तत्पश्चात् सेठ खींवराजजी राठी ने कृष्णा मिल्स की स्टेशन के उस पार स्थापना की। उसके बाद एक के बाद एक करके लगभग 20 काॅटन एवं वूलन जिनिंग व प्रेसिगं फेक्ट्रीयों की 19वीं सदी के आखिरी दशक में स्थापना हुई। इसी क्रम में स्टेशन के बाहर दांहीनी तरफ न्यू-काॅटन पे्रस जो नवलगढ़ के सेठ मोतीलालजी चैखाणी द्वारा लगाया गया था उसके तुरन्त बाद चांगगेट बाहर सेठ रामबगस खेसीदास रामगढ वालों के द्वारा नाडी का पेच (युनाईटेड काॅटन फैक्ट्री) सन् 1896 के आस-पास ब्यावर में लगाई गई। इस फैक्ट्री की देखरेख करने लिए रामगढ से खेसीदासजी के पुत्र चेतरामजी के पुत्र गजानन्दजी को ब्यावर भेजा गया। तब से ही इस नोहरे में उनके वंशज व परिवार द्वारा आज भी निवास किया जा रहा हैं। आज भी यह नोहरा रामगढवालों के नोहरे के नाम से ब्यावर में जाना जाता है। आज इस नोहरे को 107 वर्ष पूरे हो चूके है मेरी चैथी पीढ़ी हैं। मेरे बच्चों की पाॅंचवी पीढ़ी हैं तथा मेरे पौत्रो की छठी पीढ़ी हैं। इस प्रकार 107 वर्ष से इस नोहरे में छः पीढ़ी लगातार निवास करती चली आ रही हैं।

नाडी के पेच में वर्तमान में महावीर गंज बसा हुआ है जो विक्रम संवत 1992 यानि ईसवीं सन् 1935 में बसाया गया था। नाडी के पेच के दाहिनी ओर किशनलालजी ठेकेदार का पेच था जहां पर आजकल किशनगंज बसा हुआ हैं। किशनगंज भी लगभग 1935 में ही बसाया गया था। इसका नामकरण किशनलालजी के नाम पर किशनगंज रखा गया। नाडी के पेच में बालाजी का मन्दिर स्थित होने के कारण पिताश्री श्री बाबूलालजी ने इस बस्ती का नामकरण महावीरजी (बजरंग बली) के नाम पर महावीरगंज रखा।

उस वक्त ब्यावर में परकोटे के अन्दर लगभग 400 नोहरे थे तथा परकोटे के बाहर लगभग चारों दिशाओं में 50 बगीचीयाॅं थी। वर्तमान में नोहरों मे से लगभग 80 प्रतिशत मकानों ने जगह ले ली हैं व बगीचीयों मे से ज्यादातर ने फार्महाऊस, फैक्ट्रीयों, गार्डन का स्थान ले लिया हैं।

यहाॅं पर ब्यावर में उस वक्त 52 सेठों द्वारा अपनी-अपनी प्रसिद्ध गद्दियाॅं यानि दुकाने व्यापार करने हेतु खोली गई जैसे रूहिया, सेक्सरिया, डालमिया, बजाज, केडिया, बाजोरिया, हरलालका, गोयनका, सोंथलिया, चैखाणी, मुरारका आदि अतः यह फतेहपुरिया बाजार सर्राफा बाजार भी कहलाता था। सर्राफान रोकड़ सेठ रामबगस खेसीदास पोद्दार की फर्म पर दी तिजारती चेम्बर सर्राफान के नाम से रखी जाती थी। इसी दुकान पर फतेपुरिया पंचायती की रोकड़ भी रखी जाती थी। सेठ गजानन्दजी पौद्दार जब ब्यावर में आये उस वक्त उनकी उम्र 20 वर्ष की थी। गजानन्दजी का निधन सन् 1942 में यानि विक्रम सवंत 1999 के पोष सुदी तेरस को यहाॅं इस नोहरे में ही हुआ था। निधन के वक्त उनकी आयु लगभग 62 वर्ष की थी। मेरे पिता चाचा व भुवा का बचपन, जवानी व वृद्धावस्था  ब्यावर के इस नोहरे में ही बीती। पिता के नानीजी का निधन सन् 1958 में, दादाजी झाबरमलजी का निधन सन् 1958 में पिताजी बाबुलालजी का निधन 3 मार्च 1967, चाची का निधन 8 अगस्त 1991 में, मेरी पत्नि श्रीमति गीतादेवी मंगल का निधन 8 जुलाई 1998 में इसी नोहरे में हुआ। मेरी माताश्री श्रीमति गोमतीदेवी का निधन बडे़ भाई कृष्णगोपाल मंगल के पास कालाडेरा जिला जयपुर में 6 अगस्त सन् 1982 में हुआ। मेरे पिता चाचा व भुवा का बचपन रहीसी में व्यतीत हुआ। जीवनयापन की सब सुख-सुविधाऐं उस वक्त उनके नाना नानी के घर में उपलब्ध थी। अतः तीनों का बचपन बडे लाड प्यार में बिता। जवानी में भी विलासिता के साधन मौजूद थे। ब्यावर में मेरे दादा दादी पिता चाचा भुवा को बड़ा शकुन मिला। सबसे बडे दादाजी महादेवजी का परिवार डेहरी आॅन-साॅन (बिहार) के रोहिताश्व जिले में रहता हैं। भीमराजजी दादाजी का परिवार वर्तमान में कलकत्ता में रहता हैं तथा मेरे दादाजी का परिवार ब्यावर में रहता है। मेरे पिताजी का पहीला विवाह सवंत 1979 यानि सन् 1922 में बिसाऊ में हुआ था। परन्तु विवाह के 6 महीने बाद ही बडी माॅं के गठियाॅं की बीमारी हो गई। बिसाऊ सीकर जिले के शेखावाटी में हैं। मेरे चाचाजी का विवाह डुण्डलोद मुकन्दगढ़ स्टेशन जिला झून्झूनू के जलेबीचोर बैक में हरगुनराय हनुमान बक्स वालों के यहाॅं हुआ जो मण्डावा से मात्र तीन कोस की दूरी पर स्थित है। परन्तु हमारी भुवाजी का विवाह ब्यावर निवासी लक्ष्मीनारायणजी के सूपुत्र श्री रामचन्दरजी गर्ग साहिब से संवत 1986 में यानि सन् 1929 में मंडावा में हुआ था। वर पक्ष वाले ब्यावर से बारात लेकर मंडावा गये थे। उस समय ब्यावर भारतवर्ष में ऊन व रूई, कपास की प्रसिद्ध मण्डी थी। इस प्रकार ब्यावर सन् 1910, 2030 के दशक में ऊन, रूई, अनाज व वायदे के सौदों का अच्छा बाजार था। करीब 1819 काॅटन व बूलन जिनिंग व पे्रसिंग फैक्ट्रीयाॅं थी। टेक्सटाईल की तीन बड़ी मिलें थी। जिनमें दी कृष्णा मिल्स् लिमिटेड सन् 1893 में एडवर्ड मिल्स लिमिटेड सन् 1909 में दी लक्ष्मी मिल्स् लिमिटेड सन् 1925 में स्थापित हुई थी। जिनमें उस वक्त लगभग 5000 मजदुर रात दिन आॅठ-आॅंठ घंठे की तीन पारियों में चैबीस धंटे लगातार काम करते थे। इस प्रकार नया नगर यानि ब्यावर खुशहाल व्यापार की चरम सीमा पर था। संवत् 1977 यानि सन् 1920 में पिताजी ब्यावर आ गये थे। चूकिं बडी माॅं के गठिया की बीमारी थी। अतः संवत् 1990 यानि सन् 1933 में मेरे पिताजी की दूसरी शादी लक्ष्मीनारायणजी सोंथलिया की सूपुत्री व रामविलासजी सोंथलिया की बहिन गोमतीदेवी से उनके मामा केवलरामजी केडिया ने ब्यावर में की। केवलरामजी केडिया फर्म तुलसीराम रामस्वरूप के साझीदार मालिक थे। यह फर्म फतेहपुरिया बाजार में हमारी दुकान यानी घर (नोहरे) के आगे राम बगस ख्ेासीदास पौ्रद्दार के दाहिनी तरफ बगल में ही थी। रामविलासजी सौंथलिया मामाजी इस फर्म में रोकड़ का काम करते थे। मेरे नानाजी का देहान्त पूरबबिहार में हो गया था। अतः मामाजी को केवलरामजी ने ब्यावर में नौकरी के लिए बुला लिया था। अतः मेरी नानी मेरी माॅं जब चार साल की थी को लेकर ब्यावर आ गई थी।तुलसीराम रामस्वरूप एक सरार्फा फर्म थी। हमारी पहली वाली माॅं के कोई सन्तान नहीं थी। परन्तु इस माॅं से ग्यारह भाई बहिन हुए। जिनमें से पाॅंच भाई और छः बहिन। परन्तु सबसे बडी बहिन शकुन्तला का पैदा होने के कुछ वर्ष बाद ही निधन हो गया था। अतः वर्तमान में हम नौ भाई बहिन हैं। जिसमें से पाॅंच भाई और चार बहिन। तीसरे नम्बर की बहिन इन्द्राबाई का निधन 12 फरवरी सन् 2001 में आबूरोड़ में हो गया। भाई बहिनों में मेरा नम्बर छठा हैं। और भाई में दूसरा हैं। एक भाई बडा है और तीन छोटे है। बहिने दो बडी और दो छोटी मौजूद हैं। मेरे सबसे बउे भाई का जन्म 17 मई 1935 में यानी संवत् 1992 में मंडावा में हुआ। बाकी के सब भाई बहिनों का जन्म यहाॅं ब्यावर में  इस नोहरे में ही हुआ है। समय के फेर की बात है। ऋष्यिों के श्राप से रामगढ शेखावाटी वाले पौद्दार परिवार में जिनकी ब्यावर में यह मिल्कियत थी सात पीढ़ी गोद की आई। अन्त में जब सातवीॅ पीढ़ी में कोई पुरूष सदस्य परिवार में नहीं रहा तो राजपुरोहितों ने सेठाानियों को सलाह दी कि आपका कारोबार जो सारे हिन्दुस्तान में फेला हुआ है। इनकी सम्भाल करने वाला भविष्य में कोई नहीं है। अतः आप तमाम कारोबार बन्द करके सारी अचल सम्पत्ति को बेचकर यानी कल कारखाने, जमीन, पे्रस, दूकाने, मकान इत्यादि को बेचकर चल सम्पत्ति यानी रूपयों में परिवर्तित कर अपने कब्जे में ले ले। तब सेठानियों ने तमाम कारोबारी जगहों पर अपने मुख्तियार आम भेजकर सारा कारोबार बन्द कर दिया और अचल सम्पत्यिों को बेचकर नकदी अपने कब्जे में करली। इसी श्रृखॅंला में मुख्तियार उमरावती, मन्दसौर, उज्जैन, बम्बई, कलकत्ता, मीरपुर, विजयनगर और ब्यावर का व्यापार व्यवसाय और कल-कारखाने भी बन्द कर बेचकर जमीन बेचकर प्राप्त रूपयों को अपने कब्जे में कर हेड आफिस रामगढ़ शेखावाटी चले गए। इस प्रकार संवत् 2000 आते आते ब्यावर की साहिबी मुफलसी में तब्दील हो गई। तकदीर का खेल है। और इस प्रकार आज भी पुराने बाशिन्दों को यह साहिबी याद है। चूंकि सेठ गजानन्दजी इसी नोहरे में निवास करते थे। अतः यह नोहरा और दुकान यथास्थिति में रखी गयी। बाकी तमाम् जायदाद् बेचकर मुख्तियार आम रामगढ़ शेखावाटी चले गये। इसीलिए आज भी यह नोहरा सुरक्षित है और गजानन्द जी के नाती के परिवार वाले ही इसमें निवास कर रहें है और रामगढ़ के नोहरा वालों के नाम से जाने जाते है।

मण्डावा में आज भी हमारी हवेली नोहरे हैं परन्तु मात्र हम वहाॅं पर जात-जडूला के लिये ही जाते हैं। बाकी के अन्य बडे तीन दादाजी के परिवार वाले भी दिसावर कारोबार करने के लिये जाकर बस गए। हवेली नोहरे की सम्भाल चोबदार करते है। जन्में का जडूला मुकुन्दगढ़ से दो कोस दूर साॅंखू के हनुमानजी के उतारा जाता है। इसी प्रकार ब्याह की धोक भी वहाॅ पर ही साॅंॅखू के हनुमानजी, कसेरू की दादी, चूडी, मण्डावा के सारे देवी-देवताओं के मालासी, नूआ सालासर के हनुमान बाबा के लगती हैं। मेरे बडे भाई ने तो इस घर की थोड़ी-थोड़ी रहीसी देखी है। मैने भी होश सम्भालने तक करीब-करीब जाती हुई रहीसी देखी हैं। इस प्रकार हमारे पिताजी रहीसी से गरीबी में आये। हमारे सभी भाई बहिनों में करीब पोने दो साल का अन्तर है। भाई मई 35 में बडी बहिनों में 37 के शुरू में, 38 के आखिर में 40 के मध्य में 42 के शुरू में और मैं सितम्बर की 28 तारीख सन् 1944 में हुआ।

हमारे चाचाजी के चार लड़कियाॅं है। लड़का नहीं है। एक लड़का हुआ था। परन्तु वह बचपन में ही समा गया। यह लड़का एक लड़की बाद सन् 37 में हुआ था। परन्तु 38 में निधन हो गया। हमारे भुवाजी के चार लडकियां व दो लड़के हैं। पहीली सबसे बड़ी लड़की है जो मेरे बडे़ भाई गोपाल से छ महीने बड़ी हैं। नाम है सुशीला जो ब्यावर में ही मैसर्स नन्दराम फकीचन्द फर्म के रतनलालजी को ब्याही है। बाई सुशीला का मकान विनोदीलाल गली में, गिनिया भुवाजी का मकान डिग्गी मौहल्ले में मूलचन्द पहाड़िया के मकान के सामने है। नानी का मकान जानकीलालजी बाजारी वाला है जो गोविन्दनारायण माथुर वकील के सामने है। जो भुवाजी के मकान के एक मकान छोड़कर दाहिने वाला हैं। अभी भुवाजी मौजूद है जिनकी उम्र लगभग 85 साल है। भुवाजी का विवाह मण्डावा में पिताजी बाबूलालजी ने ही अपने हाथों से किया था कारण मेरी दादीजी का निधन भुवाजी के विवाह के पहिले ही हो गया था। सुशीलाबाई का विवाह सन् 1950 में हुआ। फूफाजी सन् 1992 के मार्च 25 को गुजर चुके। फुफाजी के दामाद रतनलालजी 13 दिसम्बर 1996 को गुजर चुके। माॅं के मामा केवलरामजी चुन्नीलालजी का मकान शिव मन्दिर डिग्गी मौहल्ला के सामने वाली पीछली फर्श गली में स्थित है जो आर पार है यानी मकान का पिछवाडा शिवमन्दिर के सामने खुलता है। ननिहाल में मामाजी रामविलासजी तो गुजर चुके हैं। नानी गुजर चुकी है। मामाजी के दो लडके हैं। बड़े वाला श्यामसुन्दर का परिवार यंहा ब्यावर में उसी मकान में ही रहता है। छोटेवाला बृजमोहन कलकत्ता रहता है। मामी भी उसी के पास कलकत्ता में रहती है। अभी मामी मौजूद है। मेरी नानी मेरी माॅं जब चार साल की थी उस वक्त पूरब बिहार पूणर््िाया जिले से ब्यावर में अपने भाई केवलरामजी के पास आ गई थी। मेरी माॅं की अन्य तीन बड़ी बहीनो का विवाह पूरब बिहार में ही हो गया था। बढ़ैय्या, कढ्ढागोला व गोन्ड़ा ब्याई थी। मामाजी मन्दसौर ब्याहे थे। मामाजी उस वक्त ब्यावर में तुलसीराम रामस्वरूप की दुकान पर मुनिम की नौकरी करते थे जो हमारी दुकान के बगल में दाहिनी ओर थी। मेरी तीनो मोसी जो मेरी माॅं से बड़ी थी गुजर चुकी है।  चाचाजी के बड़ी लड़की प्रभा है जो मेरे बडे़ भाई गोपाल से छ महीने छोटी है। यानि नवम्बर के आखीर में 1935 में हुई। प्रभाबाई का निधन 27 नवम्बर सन् 2000 में लखनऊ में उनकी छोटी लडकी पप्पू के पास हो गया। हिरनिया के आॅपरेशन के दौरान प्रभाबाई का निधन हुआ। तत्पश्चात उनका पार्थिव शरीर ब्यावर लाये और अन्तिम संस्कार यहां ब्यावर में किया गया। सुशीलाबाई का विवाह 1950 सन् में 15 साल की आयु में हुआ। प्रभाबाई का विवाह 1951 में 16 साल की आयु मे हुआ। बडे़ भाई गोपाल का विवाह 7 जुलाई 1953 मेें 18 साल की आयु में हुआ। चाचाजी की चार लड़कियों में से एक मेरे से बड़ी है व तीन छोटी है। भुवाजी के दो लड़कों में से एक मेरे से बड़ा व दूसरा छोटा है। चार लड़कियों में से दो बडी व दो मेरे से छोटी है। मामाजी की बड़ी लड़की गीताबाई जो स्वरूपगंज ब्याई गुजर चुकी हैं। उनके पति हंसराजजी जीजाजी भी 3 मार्च 1967 में मेरे पिताजी के निधन के रोज ही गुजरे थे। मेरी पहीली बहिन भगवती देवी का विवाह मार्च सन् 1954 में जयपुर के श्री बसन्तीलालजी जालान के साथ हुआ जिनका जन्म मार्च 10 सन् 1934 का है। बडी वाली बहिन के चार लड़के व चार लड़कियाॅं हुई जिनमें से चार लड़के व तीन लड़कियाॅं मौजूद है। सबसे छोटी लड़की तारा गुजर चुकी है। सातों शादी शुदा है। जीजाजी बसन्तीलालजी मासिक पत्रिका के सम्पादक व लघु समाचार पत्र संघ के पदाधिकरी राज्यस्तर एवं राष्ट्रीयस्तर के महामन्त्री व मन्त्री है। दूसरी बहिन इन्द्राबाई है जिनका विवाह सन् 1956 के आखीर में एरनपुरा रोड़ मखनलालजी के साथ सिंहल परिवार में किया गया। जीजाजी मखललालजी 6 फरवरी सन् 1998 में गुजर चुके। उनके दो लड़के व दो लड़कियॅंा है जिनमें से एक लड़की धारा व दो लड़को भग्गू, महेन्द्र की शादी हो चुकी है व सबसे छोटी लड़की चित्रा जिसको बैजू घर में बोलते हैं अभी अविवाहित है। तीसरी बहिन पुष्पाबाई का विवाह 1959 में अजमेर के किशनलालजी दाॅंतावालों से किया गया। इनका मकान आगरा गेट के पास नया बाजार में पट्टीकटला में ठीक सामने का है। इनके दो लड़कियाॅं है। दोनांे की शादी  करदी है। जीजाजी किशनलालजी 28 दिसम्बर सन् 1996 को गुजर चुके है। चैथी बहिन मायादेवी का विवाह 1 जुलाई 1963 में हैदराबाद दक्षिण के श्रीमान् कॅंवरसाहिब पुरूषोत्तमलालजी साहिब के साथ हुआ। इनके पाॅंच बच्चे है। तीन लड़के और दो लड़कियाॅं। तीन लड़कों व एक लड़की सरोज की शादी वहीं हैदराबाद में की है। एक लड़की कविता अविवाहित है। पांचवी बहिन स्नेहलता की शादी 24 जून सन् 1974 में जयपुर के श्रीमान् कॅंवरसाहिब रमाशंकरजी गोयल के साथ हुई। इनके दो लड़के व एक लड़की है। लड़की का विवाह 17 फरवरी सन् 2001 में सवाईमाधोपुर के गंगापुरसिटी में हुआ हैं।

चाचाजी के चारों लड़कियों की शादी हो चुकी है। प्रेम जयपुर, सुमन ब्यावर इसी मकान में, मुन्नी जोधपुर रहती है। बड़ी बाई प्रभा ब्यावर में अपने मकान ड़िग्गी मौहल्ला में रहती थी।

भुवाजी के दोनों लड़के व चारों लड़कियों की शादी हो चुकी है। बड़ा लड़का मदन बालोतरा रहता है। शारदा अमृतसर, कौशल्या जयपुर और द्रौपदी कलकत्ता रहती है। द्रौपदी के पति का निधन हो चुका है।

मामाजी की दोनों छोटी लड़कियों की शादी कलकत्ता में ही हुई है। दूसरी वाली लड़की के पति का निधन हो चुका है।

हमारे पूर्वज कारोबारी थे। परन्तु हम पाॅंचों भाई पढ़ लिखकर नौकरी में आ गए। वाकया यह हुआ कि 28 साल की उम्र में सन् 1938 में पिताजी के टी. बी. (क्षय रोग) की बिमारी हो गई। हुआ यों कि पिताजी के हर दिल अजीज् दोस्त बालचन्दजी मुथा थे। वे शतरंज् के माहिर खिलाड़ी थे। दोनों में शतरंज् की बाजियां खूब जमती थी। हर रोज शतरंज की एक बाजी खेले बगैर दिल नहीं लगता था। उन्होंने अपने ख्वासजी हुक्माजी नाई को जो उनकी हजामत बनाने घर आता था उसको एक दिन अपना खजाना बताते हुए उसको किसी अच्छे घर की लड़की से उनकी शादी करवाने की बात कहीं। हुक्मा ने शादी कराने के बजाय यह बात गुण्डों को बता दी जिन्होंने योजनाबद्ध तरीके से एक रात को उनके घर में उनका कत्ल कर दिया और माल लेकर चम्पत हो गए। पिताजी दूसरे दिन सवेरे उनका कत्ल देख आये। अतः घर आते ही उनको खून की जोरदार उल्टी हुई और वह मुर्छा खाकर गिर पडे़। दूसरी एक घटना उनके जीवन में उस समय और घटी। चाचाजी चिरंजीलालजी के लड़के का ब्यावर में उनकी अनुपस्थिति में अकस्मात् बीमारी से निधन हो गया। चाचाजी व चाचीजी किसी काम से मण्डावा गए हुए थे। पीछे से उनका लड़का ब्यावर में गुजर गया। पिताजी ने सोचा कि भाई को क्या मुॅंह दिखाऊगां। इस प्रकार उसके गम में पिताजी बिमार पड़ गये और उनके क्षय रोग हो गया। इस प्रकार दोनों गमों ने उनको बिमार कर दिया। बिमार ही नहीं अपित् स्थाईतौर पर हमेशा के लिए बिमार बना दिया। इधर कारोबार बन्द हो गया। उधर मेरे छोटे-छोटे भाई-बहिन और इन दोनों बातों के उपरान्त ऊपर से टी. बी. की बिमारी और हो गई। अतः घर में ऐसी मुफलसी पर मुफलसी आती गई कि रही सही हिम्मत तोड़ दी। घर में ऐसे दुर्दिन आते गए कि बयान नहीं किया जा सकता हैं। ऐसी मुफलसी (गरीबी) में मेरा जन्म हुआ। मेरा जन्म हुआ था जब तक घर का खजाना खाली हो चुका था। घर का एक-एक करके सामान बिक रहा था और हम मूखदर्शक की तरह घर के सामान को बिकने जाते देखते थे। परन्तु लाचारी थी। कुछ किया नहीं जा सकता था। मजबूरी थीं। लाचारी थी। उस जमाने में टी. बी. की बिमारी भयानक बिमारी मानी जाती थी। वह लाईलाज मानी जाती थी। उसका कोई इलाज ईजाद नहीं हुआ था। ब्यावर में पिताजी का खूब ईलाज कराया। परन्तु तबियत में कोई सुधार नहीं हुआ तब ईलाज के लिए उनको देवास सेनेटोरियम जो इन्दौर के पास है और जो आगरा बम्बई मार्ग पर स्थित है ले गए। वहाॅं पर अग्रेज डाक्टर राॅबर्ट के इलाज से वह ठीक हुए। परन्तु फिर भी जिन्दगी भर के लिए उनके शरीर में बिमारी का घुण तो लग ही गया था। परहेज के बिनापर वह बाकी जिन्दगी के 28 साल और जिये। इस प्रकार 28 साल खूशी में और अगले 28 साल गम में कूल 56 साल जिये। 3 मार्च सन् 1967 में वह ब्रहम्लीन हो गये।

अब मेरी जिन्दगी का सफर आरम्भ होता है। मेरी दादी पूर्णिबाई का निधन मेरी भूवा के विवाह के दो महिने बाद ही यानि सवंत् 1986 और सन् 1929 में ही हो गया था। पिताजी के नानाजी सेठ श्रीगजानन्दजी का निधन सन् 1942 यानि सवंत् 1999 में हो गया था।

जब में पैदा हुआ तो बड़ा जश्न मनाया गया। ढ़ोल नगाडे बजाये गये। वैसे ही विजयदशमी का दिन था। इसके उपरान्त मेरा जन्म और वह भी चार बहिनों के बाद मे हुआ। तो हंसी खुशी का माहौल हो भी क्यों नहीं! थाली बजाई गयी। घर मौहल्लें में परिजन मित्रगण के मिठ्ठाईयाॅ भिजवाई गयी व बाॅंटी गयी। बहिन पुष्पाबाई को मेरे पिछे बैठाकर नारियल फोडा गया। इस प्रकार हमारेरामजी का दुनियाॅं में पदार्पण हुआ। जन्मकुण्डली बनवाई गयी। जन्म लगन निकाला गया। जन्म लगन लिखवाया गया। मेरी बड़ी दादी (मोटली दादी) यानि मूलचन्दजी की जोडायत ने मेरा नाम वासुदेव रखा। वासुदेव इसलिए रखा कि मण्डावा में सेठ बनारसीलालजी हरलालका के सात लडके थे। वह करोड़पति थे। उसके सात लड़कों में से छोटे का नाम वासुदेव था। अतः मेरी दादी ने कहा कि यह विजयदशमी को हुआ है। इसका नाम भी वासुदेव रखते है। अपन भी बनारसीलाल हरलालका की तरह करोड़पति बन जायेगें। जन्म से मेरी जात्क की राशि तारीख के महिने के अनुसार तुला आती है। परन्तु नामकरण से यह ही राशि वृषभ हो जाती है। अतः नाम से ही दैनिक कार्यकलाप सम्पन्न होते है। अतः वृषभ राशि का योगदान ही 99 प्रतिशत है। तुला राशि तो नाममात्र एक प्रतिशत ही काम में संयोग करती है। दोनों राशियों के गुण दोष के आधार पर आंकलन कर्मफल से परिणाम अधिकतर वृषभ राशि के धनात्मक परिणाम ही सामने जिन्दगी में आते रहे है। अतः जीवन का आधार ज्योतिष के अनुसार गणित आकंलन का आधार वृषभ राशि ही है। वृषभ राशि का गु्रप वृषभ, कन्या और मकर है। वृषभ राशि का स्वामि शुक्र ग्रह है और वृषभ राशि का अंक छ है। अतः आधारभूत राशि, ग्रह और अंक ही दैनिक जीवन का परिचालन करते हैं। इसलिए मेरी भार्या गीतादेवी जिसकी राशि मकर थी जिन्दगी में विवाह से लेकर दिव्यलोक गमन तक पति-पत्नि के जीवन मंे परस्पर विचारों में, दैनिक कार्यकलापों में सामन्जस्य बना रहा। आपसी समझ से घर स्वर्ग समान बना रहा। पारिवारिक विचारों में अन्तर होते हुए भी पति-पत्नि की जिन्दगी में संतुलन बना रहा। यह ही सबसे बड़ा आज की भौतिक दुनियाॅं में परिवार में सांसारिक सुख माना जाता है जो तनाव मुक्त पारिवारिक जीवन है। परिवार के सब सदस्यों में आपसी समझबूझ से एक धागे में परिवार पिरोया हुआ है जो सुख की अनुभूति करता हुआ जी रहा है। इस परिवार में बेटे भी है। बहुऐं भी है। बेटी भी है। दामाद भी है। पोते भी है। पोती भी है। नाती भी है और एक ही नोहरे में अन्य भाईयों और चचेरी बहिन के परिवार के साथ संयुक्त परिवार भी है जो अलग-अलग जीवन बसर करते हुए एक साथ रहते चले आ रहे है। किसी का किसी के पारिवारिक कार्य में कोई दखलअन्दाजी नहीं हैं। परन्तु किसी बडे़ पारिवारिक कार्यों में दुख सुख में सब एक है। सब एक दुसरे के काम में हाथ बटाते है। यह परिवार की अनेकता में एकता का उदाहरण। मेरे पगफेरे से परिवार मे हाॅलाकि गरीबी में कोई र्फक नहीं पड़ा। न तो गरीबी कम ही हुई और न ही बढ़ी। अतः मेरे जन्म से परिवार में सामान्य स्थिति ही रहीं। हाॅं यह जरूर हुआ कि चार बहिनों के जन्म के बाद मेरा जन्म हुआ था। अतः परिवार में हंसी  खुशी का माहौल जरूर था। मेरा लाड़ प्यार और बहिनों व बडे़ भाई से कुछ ज्यादा ही रहा। मेरे पिताजी की नानी (मोहरीबाई) जिसको हम दादा कहते थे जो घर की सेठानी थी वह तो मेरे को सेठ ही कहती थी। वह कहा करती थी कि सेठ गजानन्दजी का दूसरा जन्म इस घर में इस बछिया के रूप में हुआ है। वह मेरे को प्यार से बछिया कहती थी और मेरी माॅं को कहती थी कि तू इसको मारा मत कर। डाटा मत कर। यह सेठ है।

गृह नक्षत्र एवं मेरी राशि के अनुसार मैं जन्म से चंचल था। सब भाई बहिनों में मैं ही सबसे ज्यादा चंचल था। जब में दो वर्ष का था तो भौंर चार बजे उठता तो मुझे खाने के लिए मोतीचुर की नुक्ती का एक देशी घी का लड्डू खाने के लिए चाहिए था जो उस समय एक आने में आता था। कभी-कभी पिताजी के पास पैसों का बन्दोबस्त नहीं होता तो मेरी माॅं रोटी को चूरकर उसका लड्डू बनाकर रख देती थी। परन्तु मुझे रोटी का चूरा हुआ लड्डू पसन्द नहीं था। अतः मैं रोटी वाले लड्डू की कटोरी लड्डू सहित फेंक देता था और मोतीचूर के लड्डू के लिए पैर फटकते हुए मचलने लग जाता था। तब मेरे पिताजी दुकान खुलने पर मोतीचूर का लड्डू लाते तब कहीं जाकर मैं चुप होता था। इसी प्रकार चार साल के होते होते मैं जानवरों के पेड़-पौधों के, मनुष्यों के चित्र ड्राइंग काॅपी पर, पट्टी पर बनाने लगा। धीरे-धीरे अभ्यास सतत् करता रहा जिससे व्यक्ति का हूबहू चित्र बनाने लगा। ग्राफ, नक्शे अक्षरों से साइन बोर्ड इत्यादि लिखने लगा। आॅंठ साल का होते होते मेरे पिताजी ने मेरे को गोपालजी मौहल्ला स्कूल में भर्ती करा दिया। उस सयम गोपालजी मौहल्ला स्कूल में सन् 1951 में पिताजी के दोस्त झम्मनलालजी चैबे पहिली कक्षा में अध्यापक हुआ करते थे। वाकया यह हुआ कि पिताजी स्कूल में भर्ती कराने के लिए घर से तैयार करके मेरी अंगुली पकडकर ले गए। रास्ते में गोपालजी के मन्दिर के आगे मैं ठोकर खाकर गिर पड़ा। अतः स्कूल में नहीं बैठने की जिद करने लगा। फिर भी पिताजी मेरे को स्कूल छोड़ आये। मैं रोता रहा। किन्तु मेरे केा लेने के लिए घर कि छुट्टी बारह बजे हुई तब ही आये। दूसरे दिन फिर मैने स्कूल नहीं जाने की जिद की। परन्तु मेरी एक नहीं चली और इस प्रकार धीरे-धीरे मैं स्कूल जाने लगा। कुछ समय बाद ही मेरे अध्यापक बदल गये और चैबेजी की जगह गोपीलालजी पण्डितजी आये। इस स्कूल का प्रबन्ध पटेल स्कूल के मातहत था जिसके प्रधानध्यापक जगदीश प्रसादजी अग्रवाल थे जो स्वतंत्रता सेनानी हरीप्रसादजी अग्रवाल के बडे़ भाई थे। प्रधानाध्यापक कभी-कभी अकस्मात् स्कूल का मूआयना करने आ जाते थे। परन्तु इस स्कूल में अधिकतर बच्चे अनुसूचित जाति के पढ़ते थें। अतः मेरे को इस स्कूल से हटाकर सन् 1952 में सनातन धर्म प्रकाशक प्राथमिक विद्यालय, राठीजी की हवेली के सामने वाली स्कूल में दाखिल कराया गया। दाखिला पहिली कक्षा में ही किया गया। उस कक्षा के अध्यापक उस समय पण्ड़ित श्री शिववल्लभजी द्विवेदी थे। शिववल्लभजी का हाॅल ही में निधन हो गया। वह तेजा चैक में रहते थे। वह पाॅंच भाई थे। जिनमें से चार बडों का निधन हो चुका हैं। शिववल्लभजी  का भाईयों में चैथा नम्बर था। उनके सबसे बडे़ भाई चन्द्रशेखरजी शास्त्री प्रकाण्ड विद्वान थे। वे संस्कृत के ज्ञाता थे जो जयपुर के संस्कृत काॅलेज के प्राचार्य थे। तत्पश्चात जगन्नाथपुरी के शंकराचार्य बनाये गये जो निरंजनदेव तिर्थ के नाम से विख्यात हुए। शिववल्लभजी के पिताश्री व पितामह ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान थे। वे ज्योतिष का कार्य करते थे। उन्होंने घर में ही ज्योतिष का संस्थान खोल रखा था जो जन्मपत्री, विवाहलग्न इत्यादि का कार्य किया करते थे। शिववल्लभजी मेरे को ही नहीं अपितु कक्षा में सभी बालकों को वात्सल्य प्रदान करते थे। प्रत्येक बालक को अपने पास बुलाते। उसके हाथ में पट्टी थमाते स्वयं पेन्सिल पकड़ते और बालक को बडे़ प्यार और धैर्य से पट्टी पर क, , , , , , , , , एै और 1 2 3 4  लिखवाते थे। फलांे के नाम लिखवाते थे। जानवरों के नाम लिखवाते थे। घरवालों के नाम लिखवाते थे। बालक का स्वयं का नाम लिखवाते थे। भाई-बहिनों का नाम पट्टी पर पेन्सिल से लिखवाते थे। परिणाम यह हुआ कि मैने पहिली कक्षा तुरन्त पार कर ली और अगली साल सन् 1953 में ही दूसरी कक्षा में बैठा दिया गया।

दूसरी कक्षा में उस समय रामबाबू बंसल कक्षाध्यापक हुआ करते थे। वह बडे़ कर्कश स्वभाव, चिड़चिडे़, जिद्दी स्वभाव वाले व्यक्ति थे। 1953 में वे अपनी माॅं के साथ आगरा से ब्यावर आकर बसे थे। उनकी सनातन स्कूल में नई-नई नौकरी थी। उस समय वह अविवाहित थे। जोग से वे मेरे बडे़ भाई गोपाल के दोस्त बन गये। पता नहीं क्या वजह थी वह हमेशा घर का घुस्सा स्कूल में कक्षा के बच्चों पर उतारा करते थे। उसमे मेरा नम्बर ज्यादातर विशेषतौर पर आता था क्योंकि मेरे बडे़ भाई गोपाल के दोस्त जो थे। उनके कहे अनुसार रोज प्रातः कक्षा आरम्भ होते ही सब बच्चों से हथेली उल्टी करवाकर अंगुलियों के नाखुन देखते थे और जिस बच्चे के नाखुन दीख जाते उसकी अंगुलियों पर तब तक डण्डा मारते रहते जब तक बच्चा कराहने नहीं लग जाता। विशेषकर मेरे दोनो हाथों की अंगुलियों पर रोज गोपाल के कहे अनुसार डण्डा मारते थे चाहे अंगुलियों के नाखुन कटे हुए ही होते तो भी मारते थे। इस प्रकार वह अध्यापक सरासर निर्दयी था जो रोज बेकसुर होते हुए भी  मात्र मेरे बडे़ भाई के कहने पर मुझे रोज मारता था। मेरा भाई मेरे से जलन रखता था। इसलिए वह रोज मास्टर से स्कूल में मेरे को कक्षा में पिटवाता था। घर पर बडे़ भाई का मेरे पर जोर चलता नहीं था। रामबाबू बंसल आज भी जिन्दा है और कुमार काॅरपोरेशन के नाम से उन्होने सनातन स्कूल मार्ग में फर्नीचर की दुकान खोल रक्खी है। आज मेरे घर में परिवार में असन्तोष फैलाने का श्रेय भी उनकी धर्मपत्नि मिथिलेश को जाता है क्योंकि रामबाबू मेरे बडे़ भाई गोपाल और मेरी भौजाई अनार से गुमराह थे। सनातन स्कूल में उस समय के अध्यापक श्री विश्वम्भरदयाल गोयल रामबाबू के मित्र थे। उनके एक विवाह योग्य लड़की थी। विश्वम्भरदयाल गोयल के माता-पिता बनारस से प्रवास कर उस समय ब्यावर आकर बसे थे। संजोग देखिये सन् 1969 में मेरा छोटा भाई श्याम सनातन धर्म मिड़िल स्कूल में उस समय क्र्लक था। उस वक्त विश्वम्भरदयाल मिडिल स्कूल के हेड़ मास्टर थे। यू. पी. भईय्यन होने के कारण उसकी लड़की का सम्बन्ध कहीं हो नहीं रहा था। उसने मेरे छोटे भाई श्याम को दामाद बनाने की सोची। उस सोची समझी चाल को अन्जाम् दिया रामबाबू मास्टर की पत्नि मिथिलेश ने। मिथिलेश ने मेरी भौजाई अनार को इस सम्बन्ध को अन्जाम देने के लिये पटाया और यह सम्बन्ध हुआ। विश्वम्भर की लड़की ने आकर घर में दो चुल्हे जलवा दिये। उसकी वजह से एक स्वर्ग सा सुन्दर घर असुन्दर और नरक बन गया। ब्याई ने हमारे घर में भाईयों के बीच में अन्तर्कलह पैदा करवा दी।  भगवान ऐसे व्यक्ति को कभी माफ नहीं करेगा जिसने अपने फायदे के लिये किसी के स्वर्ग के समान सुन्दर घर को नरक बना दिया हो।

सन् 1953 के 16 जनवरी का मेरे सबसे छोटे वाले भाई मोहन का जन्म हुआ। सन् 1953 में ही मेरे बडे़ भाई गोपाल के दसवीं कक्षा में साईन्स में सप्लीमेन्ट्री आई जिसमें वह पास हुआ। मैट्रिक करते ही सन् 1953 में 1 जुलाई को ही गोपाल का विवाह मण्ढ़ा सुरेखा निवासी हाल निवासी जयपुर के श्री श्रीवल्लभजी तेजाबत मालिक फर्म न्यू राजस्थान एजेन्सी, आर्य समाज के सामन,े किशनपाल बाजार, निवास स्थान रामगंज बाजार स्थित मुन्शीमहल की सुपुत्री सौ. का. अनारदेवी के साथ हुआ।

बडे भाई गोपाल के विवाह का बाकया भी यह हुआ कि बिजयनगर सुगर मिल्स वालें की ओर से धनजी घीया जो घीया एजेन्सी के मालिक ओमजी घीया के ताऊजी थे के मार्फत लड़की बिजयनगर में देखने का बुलावा आया। यह बात दुरगाप्रशादजी मालिक फर्म सेवाराम हंसराज को श्रीरामजी फततेहपुरिया के मार्फत मालूम पड़ी तो उन्होनें अपनी पत्नि सन्ध्या की भानजी अनार को जो उस समय उन्हीं के पास रहती थी को पहीले देखने के लिये श्रीरामजी को पिताजी बाबूलालजी के पास भेजा। पिताजी ने चाचाजी चिरंजीलालजी और चाची को गिनिया भुवा के घर, डिग्गी मौहल्लेे में, लड़की देखने के लिये भेजा। इस प्रकार चाचा चाची, भुवा फुफाजी को अनार पसन्द आ गई और यह सम्बन्ध हो गया। विवाह में  बारात जयपुर लड़की के पिता के घर लेकर गए। यहां पर दुरगाप्रसादजी के कोई औलाद नहीं थी। अतः अनार को वे अपने पास ब्यावर में रखते थे। क्योंकि दुरगाप्रशादजी  उम्र में ज्यादा थे। उनकी दो पत्नि पहीले मर चुकी थी। यह तीसरी पत्नि सन्ध्या मेरी भाभी अनार की मासी लगती है। दुरगाप्रशादजी की हवेली डिग्गी मौहल्ले के चैराहे पर है। जोग की बात है, मेरे भाई के पग के फेरे से दुरगाप्रशादजी की पत्नि के एक लड़का हुआ राजेन्द्र। अतः मेरे भाई को दुरगाप्रशादजी की पत्नि और भी ज्यादा मानने लगी। सन् 1953 की जनवरी में मेरा छोटा भाई मोहन जन्मा। आषाढ़ में मेरे भाई का विवाह हुआ और आसोज में राजेन्द्र हुआ। अतः दुरगाप्रशादजी ने मेरे भाई की नौकरी सनातन धर्म काॅलेज में लेबर असिसटेण्ट के पद पर 100 रूपये महीने में लगवा दी। दुरगाप्रशादजी इस प्रकार हमारे परिवार के अभिनय में खलनायक के रूप में आये। वे उस समय सनातन धर्म सभा के प्रेसीडेण्ट हुआ करते थे। गोविन्द नारायणजी माथुर उस समय सनातन धर्म सभा के सेके्रट्री हुआ करते थे। इस प्रकार गोपाल ने सन् 1953 में मेट्रीक की, विवाह हुआ और सन् 1953 में ही उनकी सनातन काॅलेज में नौकरी लगी। यानी सन् 1953 में तीन-तीन काम एक साथ हुए।

पिताजी छोटी मोटी सट्टे की दलाली करने लगे थे। तबियत भी उनकी कुछ कुछ ठीक रहने लगी। हाॅंलाकी बिल्कुल ठीक तो नहीं हुई थी। फिर भी परिवार का भरण पोषण कैसे-तैसे होता रहता।

सन् 1954 में मैं तीसरी कक्षा में पढ़ता था। तीसरी कक्षा के अध्यापक हुआ करते थे विश्वम्भरदयालजी गोयल। वे भी श्रीरामबाबू बंसल के स्वभाव वाले ही व्यक्ति थे। उन्होंने कभी भी बालकों को प्यार नहीं दिया। जरा जरा सी बात पर बालकों के डण्डे मारने में माहिर थे। जिद्दी और कर्कश स्वभाव के हो भी क्यों नहीं? रामबाबू बंसल के मित्र जो है और यू. पी. के रहने वाले है। दोनों की जोड़ी खूब जमी स्कूल के वातावरण को दूषित करने में।

मार्च सन् 54 में मेरी बहिन भगवती बाई का विवाह बादशाह के मेले के रोज हुआ। उसको ब्यावली को जयपुर लेने के लिये भी मैं ही गया था। सन् 54 में ही मकान मालिक मथुरा वालों ने मकान के किराये का दावा ब्यावर दीवानी न्यायालय में कर दिया जिसमें दो पार्टी बनाई। पहीली मोहरीबाई बेवा गजानन्द और दूसरी बाबूलाल चिरंजीलाल। मोहरीबाई के वकील श्यामसुन्दरलालजी थे जिनके मुन्शी पुखराजजी हुआ करते थे और बाबूलाल चिंरजीलाल के वकील पण्डित जगन्नाथजी श्र्मा थे। मथुरावालों के वकील भंवरलालजी राॅंका थे। यह मुकदमा आठ साल चला जब मथुरावालों को मुकदमें में जीतनें के आसार नजर नहीं आये तो उन्होंने बाबूलाल चिरंजीलाल से समझौता सन् 1961 की 20 दिसम्बर को कर लिया था। जगन्नाथजी के मुन्शी बहादुरमलजी अरोड़ा हुआ करते थे जो आज भी मौजूद है।

सन् 1955 में मैं चैथी कक्षा में आया। उस समय हमारे कक्षा अध्यापक जयनारायणजी मालपानी हुआ करते थे। सर्वश्री रामबाबूजी बंसल, विश्वम्भरदयालजी गोयल व जयनारायणजी मालपानी आज भी मौजूद है। जयनारायणजी मालपानी हमें ड्राईगं पढ़ाते थे। यह आनन्दरामजी मालपानी के गोद आये। वर्तमान में हमारे बैंक यानी स्टेट बैंक आॅफ बीकानेर एण्ड जयपुर की शाखा इसी परिसर आनन्द भवनतत्कालिन वर्तमान् में हेमलानी मार्केट में कार्यरत है और हमारे बैंक में ही एम. एम. प्प् के अधिकारीश्री एस. सी. मण्डोवरा मालपानीजी के ही दामाद है। इनकी पत्नि श्रीमती सुशीला मण्डोवरा का हाल ही में निधन हुआ है। श्री मण्डावराजी वर्तमान में, आंचलिक कार्यालय, जोधपुर में कार्यरत है। सन् 1955 में आसाढ़ महीने में भगवतीबाई के लड़का हुआ हमारे यहाॅं ब्यावर में घर पर ही जिसका नाम हमने कमल रक्खा और बाई के ससुरालवालों ने नाम सन्तोष रक्खा जिसका ससुराल अजमेर में हैं और जिसके दो लड़के एक लड़की रीना है।

सन् 1955 में ही मेरे छोटी बहिन स्नेहलता हुई जो कमल से 20 दिन छोटी है। स्नेह का विवाह जयपुर निवासी रमाशंकरजी गोयल के साथ हुआ जो वर्तमान में सीकर में जलदाय विभाग में नौकरी करते हैं और जिनके दो लड़के और एक लड़की हैं।

सन् 1956 में मैं पॅंाचवीं कक्षा में आया। पाॅंचवी कक्षा में मेरे कक्षाध्यापक में श्रीकॅंवरलालजी शर्मा हुआ करते थे जो हमें गणित पढ़ाते थे। कॅंवरलालजी का लड़का श्रीकान्ताप्रशाद शर्मा वर्तमान में सनातन धर्म काॅलेज में जोग्राफी का प्राफेसर है। कॅंवरलालजी चूॅंटिया भरने में माहिर थे। जरा जरा सी बात में गलत उत्तर देने पर बगल में अंगूठे और हाथ की तर्जनी अंगुली से चामड़ी पकड़कर मरोड़ देते थे जिससे बहुत जोर का दर्द होता था। सन् 1955 में रूस के प्रधानमंत्री मार्शल बुलगानिन भारत आये। वे जयपुर भी आये। उस समय जयपुर में उनकी जयपुर महाराज मानसिंहजी के साथ हाथी के औहदे पर सवारी निकाली गई थी। मैं जयपुर में सन् 1955 में भगवतीबाई के पास दो महिने तक रहा था। बाई की दादीसास बहुत अच्छी औरत थी। वह मेरा बहुत लाड़ करती थी। उन्होंने मेरे को एक सूट सिलवाकर दिया और जब मैं ब्यावर आया तो एक दो पहियें की काली पुरानी साईकिल भी चलाने को दी जिसे मैनें ठीक करवाकर चलाने के काम में ली। कंवरलालजी मास्टर साहिब का लडका कान्ताप्रशाद भी मेरी तरह ड्राईंग में बहुत अच्छा विद्यार्थी था। उसके और मेरे बनाये गये चित्रों की प्रदर्शनी अलग-अलग कमरों में लगाई जाती थी और जब ईनाम दिया जाता था तो दोनो को ही पहिले नम्बर पर ईनाम दिया जाता था। मेरे ड्राईंग में माहिर होने के कारण ही पिताजी की नानी यानि दादा मेरे हाथों में छुछक डालती थी और कहती रहती थी कि कहीं मेरे बछिये के हाथों में नजर न लग जाये। कंवरलालजी मास्टर साहिब गोपालजी के मन्दिर वाली बगीची में रहते थे। प्राइमरी स्कूल के हेडमास्टर सूरजकरणजी शर्मा हुआ करते थे जो गोपालजी के मन्दिर के आगे वाले मकान निहालचन्दजी के मकान में रहते थे। वे शिव के बड़े भक्त थे। पाॅंच बजे प्रातःकाल बाजार वाले शिवमन्दिर में पाठ-पूजा अर्चना के लिये आ जाते थे जो लगभग एक घण्टे तक माला फेरते थे। सन् 1956 में ही हमारे बाबाजी झाबरमलजी यहाॅं इस नोहरेे में गर्मी के मौसम में ब्रहम्लीन हुऐ। सन् 1956 की सर्दी में ही मेरी बड़ी बहिन इन्द्राबाई का विवाह ऐरनपूरा रोड़ निवासी श्री मक्खनलालजी सिंहल के साथ हुआ। उस वक्त ऐरनपूरा में जवाईबान्ध बन रहा था जिसकी गिट्टी सिमन्ट स्टेशन से साइट पर पहुॅंचाने का ठेका जीजाजी मक्खनलालजी ने ले रक्खा था। जवाईबान्ध जोधपुर महाराज राजस्थान सरकार के साथ मिलकर बनवा रहे थे। इस बांध के ठेकेदारों में से दुर्गाप्रशादजी भी एक थे। सन् 1956 में ही मिट्रिक बाट प्रणाली, दशमलव सिक्का नई प्रणाली रूपये आने पैसे के स्थान पर और पाव आधा सेर एक सेर के स्थान पर एक किलोगा्राम व गा्राम प्रणाली लागू हुई। 1 नवम्बर सन् 1956 में अजमेर राज्य को राजस्थान प्रदेश में मिलाया गया और अजमेर राजस्थान का जिला बना। सन् 1956 में ब्यावर का डिग्री काॅलेज स्नात्तकोत्तर महाविद्यालय में परिवर्तित हुआ और डाक्टर आर. एन. बागची इसके प्राचार्य बनकर ब्यावर आये।

पाॅचवी कक्षा की उस समय बोर्ड की परीक्षा हुई। हमारे पर प्रयोग किया गया और एक ही दिन में सारे विषयों के पेपर हुए। इस हेतु हमारे को प्रातः आॅंठ बजे ही स्कूल बुला लिया गया था। आॅंठ बजे परीक्षा आरम्भ हुई और बारी बारी से सभी प्रश्न-पत्रों की परीक्षाऐं 40-40 मिनट के निर्धारित समय पर ली गई। बीच-बीच में एक प्रश्न-पत्र से दूसरे प्रश्न-पत्र के बीच दस-दस मिनट का अन्तराल रक्खा गया। स्कूल का दरवाजा बन्द कर लिया गया था। अलग-अलग दस-दस की कतार में हमें बैठाया गया। बस्ते किताब काॅपियाॅं अलग रखवा दी गई। अलग-अलग विषय के लिये अलग-अलग काॅंपियाॅ दी गई जो निर्धारित समय की समाप्ति पर एकत्रित करली गई। चार विषय की परीक्षा की समाप्ति पर अर्धकालीन अवकाश आधा घण्टे के लिए हुआ जिसमें सभी परीक्षार्थी और आयोजकों ने भोजन किया। खाने के लिए सभी अपने-अपने घर से टिफन लेेेकर आये थे। इस प्रकार पहिली बार पाॅंचवी कक्षा की प्रायोगिक तौर पर हमारी बोर्ड की परीक्षा एक ही दिन में सम्पन्न हुई। इसप्रकार सन् 1956 की समाप्ति हुई। पढ़ाई में जिसप्रकार अव्वल था उसीप्रकार खेलकूद में भी हमेशा आगे रहा। फुटबाॅल, कब्बड्डी, हाॅकी, दौड़, लम्बी कूद, ऊॅंची कूद इत्यादि खेलों में मैं सदैव स्कूल का नियमित खिलाड़ी था। जिसप्रकार कक्षा में माॅनीटर व प्रीफेक्ट पहिली कक्षा से ही लगातार चैदहवीं कक्षा तक रहा उसीप्रकार ही कब्बड्डी टीम, फुटबाल टीम इत्यादि का कैप्टन भी सदैव रहा।

 
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